Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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चित्रकार मिथिला से निर्वासन होकर हस्तिनापुर गया । वहाँ उसने मल्लिकुमारी का एक चित्र बनाया और उस चित्रपट को साथ में लेकर राजा अदीनशत्रु के पास पहुंचा । बहुमूल्य उपहार के साथ मल्लीकुमारी का चित्र भेट करते हुए कहा - स्वामी ! मिथिला नरेश ने अपने देश से मुझे निष्कासिन कर दिया है । मैं आप की छत्र छाया में रहना चाहता हूँ । चित्रकार के मुख से निर्वासन का समस्त हाल सुनकर महाराजा ने उसे अपने शरण में रख लिया । मल्लीकुमारी के अनुपम सौन्दर्य को देख कर महाराज अत्यन्त मुग्ध हो गये । उन्होंने अपने दूत को बुलाकर आज्ञा दी -,, तुम मिथिला नगरी जाओ और महाराज कुम्भ से मल्लीकुमारी को मेरी भार्यां के रूप में मंगनी करो,, दूत ने महाराज्ञ की आज्ञा प्राप्त रक मिथिला की ओर प्रस्थान कर दिया ।
तत्कालीन पांचाल देश की राजधानी कांपिल्यपुर थी । वहाँ जितशत्रु राजा राज्य करते थे । उसके धारिणी आदि हजार रानियाँ थीं ।
एक समय चोखा नाम की परिव्राजिका मिथिला नगरी में आई । वह ऋग्वेदादि षष्टी तंत्र की विज्ञा थी । वह दान, धर्म, शौचधर्म तीर्थाभिषेक की परूपणा किया करती थी । एक दिन वह राजमहल में पहुंची और मल्लीकुमारी को शौचधर्म का उपदेश देने लगी श्रीमल्लीकुमारी स्वयं विदुषी थी । चोखा को यह ज्ञान नहीं था कि जिसे मैं शौचधर्म का उपदेश दे रही हूँ वह एक महान तत्त्वज्ञानी है । वह परित्राजिका मल्ली को शौचधर्म का तत्त्वज्ञान समझाते हुए कहने लगी- अपवित्र वस्तु की शुद्धि जल और मिट्टी से होती । मल्लीकुमारी ने कहा- परिव्राजिके ! रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से धोने पर क्या उस की शुद्धि हो सकती है ? इसपर घरिव्राजिका ने कहा - " नहीं । "मल्लीकुमारी बोली--,, इस प्रकार हिंसा से हिंसा की शुद्धि नहीं हो सकती ।, जैसे रुधिरवाले वस्त्र क्षार आदि दे धोने से शुद्ध होते हैं वैसेही अहिंसामय धर्म और शुद्ध श्रद्धा से पाप स्थानों की शुद्धि होती है । जल और मिट्टी से केवल बाह्य पदार्थो की शुद्धि होती है आत्माकी नहीं ।
मल्लीकुमारी के युक्ति पूर्ण वचन सुनकर चोखा परिव्राजिका निरुत्तर हो गई । दासियों ने निरुत्तर परिव्राजिका को अपमानित कर उसे बाहर निकाल दी ।
मल्ली भगवती के राजमहल से अपमानित वह चोखा अपनी शिष्याओं के साथ मिथिला से निकल कर पांचाल देश की राजधानी कांपिल्यपुर पहुँची । एक दिन वहां अपनी शिष्याओं के साथ महाराजा जित के महल में गई और वहां महाराजा को दान धर्म, शौच धर्म का उपदेश देने लगी ।
शत्रु
महाराज जितश को अपने अंतपुर की विशालता एवं अनुपम सुन्दरियों पर बडा अभिमान था । महाराज ने परिव्राजितका से पूछा
परिव्राजिके ! तुम अनेक ग्राम-नगरों में घूमती हो और अनेक राजमहलों में भी प्रवेश करती हो । राजा महाराजाओं के वैभव को अपनी आखों से देखती हो । कहो -- मेरे जैसा अन्तपुर भी तुमने कहीं देखा है ?
परिव्राजिका ने उत्तर दिया राजन् ! आप कृपमण्डूक प्रतीत होते हैं । आपने दूसरों की पुत्र वधुओ, भार्याओं, एवं पुत्रियों को नहीं देखा इसीलिए ऐसा कहते हो । मैंने मिथिला के विदेहराज की कन्या मल्ली कुमारी का जो रूप देखा है वैसारूप किसी देवकुमारो या नागकन्या का भी नही, मल्ली कुमारी के रूप की प्रशंसा सुनकर महाराज ने मल्लीकुमारी के साथ विवाह करने का निश्चय किया और उसी समय बुलाकर उसे मल्लीकुमारी की मंगनी के लिए मिथिला जाने का आदेश दे दिया । महाराजा की आज्ञा पाकर दूत मिथिला की ओर चला ।
दूत
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