Book Title: Gautam Pruccha
Author(s): Purvacharya
Publisher: Indrachand Agarchand Seth
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श्री गौतमपृच्छा ॥ ॥५२॥
अशादशम एकोनवि शतितमप्रश्नो॥
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पुरिसो॥ ३४ ॥ __व्याख्याः -यो जीवः सर्वेषां जीवानां त्रासं भयं नो ददाति, अन्यस्मात् त्रासं च नो कारापयति, तथा यः१ परपीडां वर्जयति, (जनसेवापरोपकारश्च क्रियते ) एवंविधः पुरुषो हे गौतम ! धोरो भवति, यथा सिंहाख्यः पुरुषो धीरः साहसिकश्च संजातः॥ ३४॥
प्रश्न:- (श्रीगौतमस्वामी पृच्छति-" हे भगवन् ! हे करुणानिधे! हे २वशिनां वरेण्य ! केन कर्मणा स जीवः भीरुभवति ?" (१९)
उत्तर:- (तदा दयालुर्भगवान् उवाच-हे गौतम !) __ गाथा-कुक्कुरतित्तरलावे, सूयरहिरणे य विविहजीवे य । निच्च विग्यो धारेइ, सो सम्वकालं हवइ भीरू॥३॥
व्याख्याः-यः पुरुषः कुक्कुरतित्तरलाबान पुनः शूकरमृगादिविविधजीवान् नित्यं पञ्जरे क्षिप्त्वा रक्षति सर्वजीवानां चोद्वेगं जनयति म पुरुषो मृत्वा सर्वकालं यावद् भीरुर्भवति, अभयसिंह-लघुभ्रातृ-धनसिंहवत् ॥३५॥
द्वराज हुएसे हुआ फल क्या, यदि ज्ञानके दीप जलाये नही । धिक् क्षत्रिय गेहमें जन्मो लियो, यदि जगके त्रास नसाये नही । सब व्यर्थ वैश्य के गेड भये, यदि विश्वमें वैभव छाये नही । धिक्कार हे मानव जन्म लिये, यदि मानव काममें आए नहीं ॥१॥ २ जितेन्द्रियमुनीनां श्रेष्ठ ॥
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॥५२॥
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