Book Title: Dharmpariksha Kathanakam
Author(s): Saubhagyasagar Gani, Rangvimal Gani
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala
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RRIERMA
प्रथमः परिच्छेद
धर्मपरीक्षा कथानकम् ॥२॥
॥२८॥ ॥२९॥
॥३०॥
नाखण्डि पाखण्डिजनेन धर्मभावः सतां सम्धृदि भाषमाणः।
कोत्करेणोदयशैलशीर्ष पूषेव भीमं धनतापि यत्र तस्यामनभोगेन्द्रो जितशत्रुर्धराधिपः । न्यायवृक्षवसंतश्री:, विक्रमाक्रान्तविष्टप: गर्जज्जगद्व्यापि यशो यदीयं सार्क द्विषद् दुर्यशसा समेन ।
दिग्योषितां मञ्जुलमाल्ययुक्तधम्मि ल्लशोभा दधते स्म दिव्याम् दीप्रप्रतापदइनो निवहनम्यां यस्य प्रतापि बडवामिजिगीपयेव । पाथोनिघौ विशति विद्रुमदमतः कि संशोषयमपि यशोभवनं रिपूणाम् प्रियाऽस्यासीद्वायुवेगा प्रेमपात्रमनिदिता । या पोव हरेः शंभोरुमाग्लाश्च कौमुदी यस्याः पुरोगांकुरिता शयाम्यां फुल्ला सुदृग्म्यां फलिता कुचाम्याम् ।
युवाक्षिभृङ्गः परिगाहमाना प्रत्यग्रतारुण्यलता विरेजे यस्याः सुशीलवतशीलनाया वक्त्र श्रिया निर्जितमम्बुजन्म।
अंत:पयोदुर्गमिव प्रविश्य तेथे तपस्तीव्रतमं जयाय पचा कि स्वयमागता मधुरिपोर्देवस्य वक्षःस्थलात, क्रोधाद्भर्तुरुतावतारमकरोत्पृश्यां कुमारी सुरी। नीलोत्फुल्लपयोजपक्ष्मललसम्मेवामिमा मानिनीम्, दृष्ट्वा सन्मतयो मता मतिमतामेवं स्फुरन्ति स्फुटम्
॥३३॥
॥३५॥
॥२॥

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