Book Title: Dharmpariksha Kathanakam
Author(s): Saubhagyasagar Gani, Rangvimal Gani
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala
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॥ ३६॥ ॥३७॥
।। ३८॥
॥३९॥
अंजानस्य तया सार्ध भोगान भूमीभुजो मुदा। बहवो वत्सरा याता एकवासरसनिमा: साऽसूत समये मर्नु मनोवेगाहमन्यदा । सहस्रांशुमिव प्राची रत्नं वा रोहिणाद्रिमः कलाकलापेन विशुद्धवृत्तिः शीतद्युतिर्वा प्रहितान्धकार । .
दिने दिने वृद्धिमितः स पोतः सार्ध गुणैः कुन्दहिमाद्रिशुद्धैः अमेयसत्या खचराधिपानां जग्राह विद्याः सकलाः कुमारः।
पयोधि रामा इव वेलयाब्धिः पद्माश्रितः प्रोन्नतिमानगाधः यो नीतिरीतिप्रततो पयोदो वाल्ये 'विपश्चिजनमोददाता।
बभार सम्यक्त्वमुदारचेता (2) सत क्षायक कर्मकृशानुवारि प्रियपुरीशस्य सूनुहृद्यविद्यादिसद्गुणी । पवनोद्वेग इत्याहः सखाऽऽसीत्तस्य सुन्दर अन्योज्यं न क्षमौ स्थातुं क्षणं तौ प्रीविनिर्मरौ। दिनार्थाविव लोकानामभूतां मार्गबोधको दुर्भद्यमिथ्यात्वतमोऽवलीढः प्रियापुरीशस्य सुतो बभूव ।
जिनेन्द्रधर्मेऽतिपराङ्मुखोऽयं यशाम्रवृक्षे करभो विमेधः मिथ्यात्वयुक्तं तं वीक्ष्य जिनधर्मपराङ्मुखम् । मनोऽतरे मनोवेगोऽचिन्तपद् दृढधर्मधी: पतन्तं सहदं दुःखे वारवामि कुहेतुकम् । तं मित्रमाहुविद्वांसो धर्मे यो योजयेज्जनम्
॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥
॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥

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