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भर्तृहरि कहता है - " जो अपने सुख का परित्याग करके भी प्रसन्नता से दूसरों को सुख पहुंचाते हैं, वे सत्पुरुष हैं, एक प्रकार से देव हैं।
__ जो अपने सुख का परित्याग किए बिना, अपने सुख के साथ दूसरों को भी सुख पहुँचाते हैं वे सामान्य पुरुष हैं । समझ लीजिए मानव हैं।
___ और जो बिना किसी मतलब के यों ही निरर्थक किसी को हानि पहुँचाते हैं, दुःख देते हैं, वे कौन हैं ? उन्हें क्या नाम दिया जाए, हम नहीं जानते ।”
ठीक है, राक्षस तो वे बताए जा चुके हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को हानि पहुँचाते हैं । फिर ये नि:स्वार्थी हत्यारे कौन ?
यदि मानव मन में करुणा का विकास न होता, परस्पर के सुख-दु:खों में सहवेदन की भावना न होती, तो परिवार कैसे बनते ? माता-पिता, बहन-भाई, पति-पत्नी आदि के मधुर रिश्ते-नाते कैसे विकसित होते ? मानव-जाति के सिवा ये रिश्ते-नाते अन्यत्र कहीं नहीं हैं । जब ये नहीं हैं, तो वहाँ न परिवार है, न समाज है, न राष्ट्र है, न धर्म है और न पवित्र एवं मधुर कही जाने-जैसी और कोई चीज ही है ।
__ श्रमण भगवान महावीर का अनुकम्पा दर्शन कहता है - " सुख दोगे, तो सुख मिलेगा और दुःख दोगे तो दु:ख मिलेगा । जैसा भी अच्छा-बुरा बीज मनोभूमि में बोओगे, वैसा ही उसका फल तुमको मिलेगा । अनुकम्पा दया से सुख के बीज बोए जाते हैं और निर्दयता एवं क्रूरता से दु:ख के बीजों का वपन होता है । अर्थात् सुख में से सुख का जन्म होता है | पर, किसके सुख में से ? अपने सुख में से, अपने सुखोपभोग में से सुख का, शांति का जन्म नहीं होता, उसमें से तो अधिकतर दु:ख का ही जन्म होता है । सुख में से सुख का जन्म होता है- दूसरों को, दीन-हीनों को, पीड़ितों को सुख देने में, उनका दु:ख दूर करने में ।"
___ यदि मानव को मानव बने रहना है, तन से ही नहीं- मन से भी अपनी मानवता को धोतित करना है, तो भगवती करुणा का आश्रय लेना होगा |
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