________________
१२
एक बौद्ध ब्रह्मचारी थे। युवा वय, तीक्ष्ण बुद्धि, ज्ञानार्जनकी लगन और देश-विदेशमें परिभ्रमणकी शक्ति आदि अनेक कारणोंसे थोड़े वर्षोंमें ही वे शस्त्रविद्या, न्याय, व्याकरण, भाषा, काव्यशास्त्र एवं शिल्प, चित्रकला, गृहनिर्माणकला आदि अनेक लौकिक विद्याओंमें निपुण हो गये ।
इन सब विद्याओंको देखकर लोग विस्मय करते और उनकी प्रशंसा करते । जहाँ जाते वहाँ समाजके सभी वर्गोंकी ओरसे उनका सम्मान होता । इसप्रकार अपनी ख्याति बढ़ जानेसे उनमें अभिमान जागृत हुआ और वे स्वयंको सबसे अधिक चतुर और विद्वान मानने लगे ।
उनकी प्रशंसाकी बात बुद्धदेव तथागत तक पहुँची । उनको सन्मार्ग पर लानेके लिए करुणामय दृष्टिसे वे उनके याचकका रूप लेकर गये ।
'तू कौन है ?' ब्रह्मचारीने अभिमानपूर्वक पूछा । 'मैं आत्मविजयका पथिक हूँ।' तथागतने कहा ।
' इसका क्या तात्पर्य है ? स्पष्ट कह' ब्रह्मचारीने स्पष्टीकरण
पास वृद्ध ब्राह्मण
चाहा ।
विद्याका अभिमान
-
Jain Education International
'जिसप्रकार खेती, गृहनिर्माण, चित्र, शिल्प आदि कलाएँ हैं, उसी प्रकार अपने मन, वचन, काय और आत्मा पर विजय प्राप्त करनेकी भी कला है। जो उसे सिद्ध करता है वह आत्मविजयी बनता है।'
"यह किसप्रकार हो सकता है ?" ब्रह्मचारीने पूछा ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org