Book Title: Charitrya Suvas
Author(s): Babulal Siddhsen Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 38
________________ चारित्र्य-सुवास बाकीके आम घरके अन्य सदस्योंको और नौकरोंको देना, आम बहुत स्वादिष्ट हैं। रमाबाई : आम स्वादिष्ट हैं तो अधिक खाना चाहिए, दो-तीन फाँक खाकर क्यों रुक गये ? क्या स्वास्थ्य ठीक नहीं है ? रानडेजी : जो वस्तु स्वादिष्ट लगे उसे अधिक नहीं खाना चाहिए। जीभको उत्तेजन मिलनेसे हमें उसका चाकर बनना पड़ता है। रमाबाई : आपकी ऐसी अटपटी बात मुझे समझमें नहीं आती। रानडेजी : सुन, एक बात कहता हूँ। मैं जब बम्बईमें पढ़ता था और विद्यार्थीके रूपमें होस्टेलमें रहता था तव पड़ौसमें एक बहन रहती थी। वह सम्पन्न घरकी होनेसे उसे प्रतिदिन तीन-चार शाक खानेकी आदत हो गयी थी। अचानक घरकी स्थिति बिगड़ी और उस बहनकी दशा सामान्य हो गयी। अब उसे एक शाक लाना भी कठिन हो गया। भोजन करते समय वह हमेशा दुःखी रहती थी। अनेक शाकका स्वाद चखनेकी आदत हो गयी थी इसी बातको याद करके उसे व्याकुलताका अनुभव होता था। जबसे मैंने यह देखा तभीसे निश्चय किया कि बहुत स्वादिष्ट वस्तु अधिक या बारंबार नहीं खाना। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो जीभका गुलाम बननेसे दुःखी होनेका अवसर आयेगा। स्वामीकी बात सुनकर रमाबाई प्रसन्नतापूर्वक इस विचारसे सहमत हुईं और अपने काममें लग गयीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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