Book Title: Charitrya Suvas
Author(s): Babulal Siddhsen Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

View full book text
Previous | Next

Page 54
________________ चारित्र्य सुवास रोक दिया। ऐसे निर्जन प्रदेशमें रुकनेका कारण क्या ? 'समुझि लेओ रे मना भाई, अंत न होइ कोई अपना ।' महात्मा ब्रह्मगिरिके शिष्य साधु मनरंगीर अपनी धुनमें लीन होकर यह पद गा रहे थे, परन्तु ये शब्द उस घुड़सवार सिंगाजीके हृदयको बींधकर आरपार निकल गये । 'महाराज ! अपने चरणोंमें मुझे स्थान दें। आपके शब्दामृतसे मुझे नवजीवन प्राप्त हुआ है।' इन शब्दोंके साथ ही घुड़सवारने अपना मस्तक साधुके चरणोंमें झुका दिया | 'अब मुझे राजदूतके रूपमें काम नहीं करना है। भगवानके भजनामृतका आनन्द छोड़ना पड़े, ऐसे सांसारिक प्रपंच अब मुझे बिलकुल नहीं चाहिएँ' घुड़सवारके उद्गार थे । ४१ - 'सिंगाजी, वास्तवमें तो तुम्हारा ही सन्त जैसा हृदय है, इसलिए तुम्हीं धन्यवादके पात्र हो ।' सन्तने प्रत्युत्तर दिया । इस घटनाके पश्चात् सिंगाजी, मध्यप्रदेशके भामगढ़-राज्यके रावके यहाँसे निवृत्त होकर, पीपाल्याके जंगलमें कुटी बनाकर सत्संगका लाभ लेते हुए परमार्थसाधनामें जीवन बिताने लगे । Jain Education International इन्होंने भगवद्भक्तिके अनेक सुन्दर पद बनाये हैं । सन्त सिंगाजी, महात्मा तुलसीदास और मीराबाईके समकालीन थे अर्थात् सोलहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्धमें वे मध्यभारतके एक महान सन्तके रूपमें विद्यमान थे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106