Book Title: Charitrya Suvas
Author(s): Babulal Siddhsen Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 60
________________ चारित्र्य सुवास एक दिन साँझके समय उन्हें समाचार मिले कि जयपुरके पास एक छोटे-से गाँवमें किसी ग़रीब वृद्धाफा इकलौता पुत्र बहुत बीमार है, परन्तु चिकित्सा करानेका उसके पास कोई साधन नहीं है। दीवान साहबने शीघ्र स्वयं ही वहाँ जानेका निर्णय किया। साँझका समय हो जानेसे घरके सदस्योंने उन्हें प्रातः कालमें जानेका निवेदन किया, परन्तु जिसके हृदयमें करुणाकी ज्योति जल चुकी थी ऐसे दीवानजीने अपने बड़े पुत्रको साथ लेकर आवश्यक सामग्री सहित उस गाँवकी ओर प्रयाण किया । ४७ जयपुरकी सीमा उल्लंघते ही, महाराजा माधवसिंह बाहर गाँवसे लौट रहे थे उनसे उनकी भेंट हो गई। महाराजने पूछा, 'कहिए दीवानजी इस समय किस ओर ? दीवानजी तो कुछ बोले नहीं परन्तु उनके पुत्रने सव वातें कह सुनायी । यह सुनकर महाराजाने कहा, 'दीवानजी, यह काम आपको स्वयं करनेकी क्या आवश्यकता है, राजवैद्य और अन्य लोगोंको भेज दो तो कैसा ?' दीवानजीने कहा, 'महाराज, मेरा पुत्र होता तो मैं जाता कि नहीं ? यह भी मेरा पुत्र ही है ऐसा समझकर जा रहा हूँ।' महाराजाने विशेष टोकटाक नहीं की और दीवानजी स्वयं ही सेवाका यह काम करनेके लिए चल निकले ! धन्य दयावतार और धन्य उनका प्रजावात्सल्य !! जहाँ राज्यकर्ताओंका प्रजाके प्रति इतना प्रेम हो वहाँ राजाके लिए प्रजा अपने प्राण बिछा दे तो इसमें क्या आश्चर्य ? * Jain Education International For Private & Personal Use Only · www.jainelibrary.org

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