Book Title: Charitrya Suvas
Author(s): Babulal Siddhsen Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 86
________________ चारित्र्य सुवास ७३ जीमने आनेकी परवाह नहीं थी । युधिष्ठिरने आदर सहित उस भंगीको बुलवाया। द्रोपदी द्वारा स्वयं बनाई गयी रसोई उसे परोसी गयी । भंगीने एक-एक कौर अलग करके ईश्वरको अर्पण किया और बादमें सब इकट्ठा मिलाकर वह खा गया। यह देखकर द्रौपदीको ग्लानि हुई । उसने मन ही मन विचारा आखिर है तो भंगी न! वह रसोईके स्वादको क्या समझे ?" इसपर शंख थोड़ा बजकर बन्द हो गया । तव पुनः पूछे जानेपर श्रीकृष्णने कहा : 'तुमने भक्तको आदरपूर्वक नहीं जिमाया। तुम्हारे मनमें भक्तकी ओर घृणाकी भावना पैदा हुई थी इसलिए परिणाम भी वैसा ही आया है ।' निर्मल चित्तवाली द्रौपदी भंगीके पास गयीं, उससे क्षमा माँगी और इकट्ठा मिलाकर खानेका कारण पूछा, तब आत्माराम सन्तने कहा, 'अन्न है वह शरीरके पोषणके लिए है, इन्द्रियोंको उन्मत्त बनानेके लिए नहीं है। स्वादपूर्वक भोजन करनेसे जीभकी लोलुपता बढ़ती है, सभी इन्द्रियोंमें रसना - इन्द्रिय भयंकर है। स्वादका चसका, ध्यान और भक्तिमें वाधक इसलिए मैंने उसका त्याग किया है।' ये वचन सुनकर द्रौपदी प्रसन्न हुईं और उसे वंदन करने लगीं । पश्चात् मंगल चिह्नस्वरूप पांचजन्य शंख बज उठा ! ६४ एक ग्रामीण पाठशालामें अध्यापकने विद्यार्थियोंको गृहकार्यके लिए कुछ गणितके प्रश्न दिये और दूसरे दिन हल कर Jain Education International सत्यनिष्ठा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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