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चारित्र्य-सुवास
देखो ! मानवताकी उच्च भावनाका पालन और उसमेंसे प्राप्त होती हुई प्रेरणाओंकी परम्परा !!
सत्यका आचरण
एक समय एक विद्वान-पुरुष अपने गाँव मोरेना (मध्यप्रदेश)से . बम्बईकी ओर जा रहे थे। सब कुटुम्बीजन भी साथमें थे।
बातचीत करते हुए उनकी धर्मपलीने कहा कि आज तो छोटे पुत्रकी वर्षगांठ है, तीन वर्ष पूरे होकर आज उसे चौथा वर्ष लगा।
यह बात सुनकर विद्वान-पुरुष कुछ विचारमें पड़ गये, परन्तु इतनेमें तो बम्बईका स्टेशन आ गया और गाड़ी रुक गयी। 'मैं तुम्हें बाहर टिकट-खिड़की पर मिलता हूँ, तुम व्यवस्थितरूपसे सब सामान उतारकर बाहर निकलकर वहाँ आओ।'
कुटुम्बीजनोंको आश्चर्य हुआ। कुछ घबराये, किन्तु तबतकमें तो पंडितजी चल निकले थे।
टिकट-खिड़कीपर जाकर वे स्टेशन-मास्टरसे मिले। 'आज ही मेरा पुत्र पूरे तीन वर्षका होकर चौथेमें लगा है, पर मैं मोरेनासे निकला तब मुझे इस बातका ध्यान नहीं रहा, कृपया मुझे मेरे पुत्रकी आधी टिकट मोरेनासे बम्बईकी बना दीजिए।' ___यह सुनकर स्टेशन-मास्टरको बड़ी प्रसन्नता हुई और मन-ही-मन उन्हें धन्यवाद देते हुए टिकट बना दी।
इतनेमें तो सभी कुटुम्बीजन सामान लेकर टिकट-खिड़कीके पास आ पहुँचे थे। बातकी यथार्थता जानकर सबको संतोष हुआ।
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