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चारित्र्य सुवास
सन्तने कहा, 'भाई ! हम सन्त-लोग भी खूब प्रयत्नपूर्वक अपने प्रभुको बैठानेके लिए हमारा चित्त स्वच्छ करते हैं। भारी साधनासे स्वच्छ किये हुए चित्तको मलीन करनेके लिए कोई ऐसे रुपये-पैसे दे जाय तो हमें वह कैसे अच्छा लगेगा ? अब तू ही बता कि तुझे यह अपनी पैसोंकी थैली वापस ले लेनी चाहिए कि नहीं ?'
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निस्पृही महात्माकी तर्कपूर्ण युक्तिसे प्रभावित उस व्यापारीने सन्तकी आज्ञा मान ली। सन्तने उस सज्जनको धर्मलाभके लिए आशीर्वाद दिया और अपनी सम्पत्तिका दान, परमार्थके किसी योग्य कार्यके लिए करनेको कहा ।
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अहिंसक सिंह !
सत्रहवीं शताब्दीकी यह बात है ।
उस समय मुलतानमें नवाब मुजफ्फरखानका शासन था। मंत्री उदयरामजी जैन उनके विशेष विश्वासपात्र राजदरबारी थे ।
एक बार नवाबको एक नवजात सिंहशिशु भेंटस्वरूप प्राप्त हुआ । नवाबने उदयरामजीसे कहा, 'सेठ साहब आप तो पूर्ण अहिंसक हैं, लीजिए इस सिंहके बच्चेको; यदि आप इसे भी अहिंसक बना दें तो आपको पूरा अहिंसक समझँ ।' उदयरामजी तो बच्चेको अपने घर ले आये और उसे दूधके साथ धीरे-धीरे अन्नाहारकी भी आदत डालने लगे।
इसप्रकार समय बीतते सिंहका बच्चा तीन वर्षका हुआ तब उदयरामजीने उस बच्चेको नवाबको सौंप दिया और कहा,
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