Book Title: Charitrya Suvas
Author(s): Babulal Siddhsen Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 59
________________ चारित्र्य-सुवास आया कि स्वयं लिखे हुए पत्र डाकमें डालनेके लिए उनके पास टिकटके पैसे भी नहीं थे। फिर भी वे पत्रोंका उत्तर लिखकर, डाकको अपनी टेबल पर रख छोड़ते थे। __एक बार उनके एक मित्र उनसे मिलनेके लिए आये। उन्होंने डाकका पुलिंदा देखा और सव बात समझ गये। तुरंत टिकट लाकर सब डाक रवाना कर दी। कुछ समयके वाद भारतेन्दुकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो गयी । वे पुराने मित्र जब भी मिलते तभी भारतेन्दुजी उन्हें डाक टिकटके पाँच रुपये देने लगते परन्तु मित्र तो उनका अस्वीकार ही करते। अंततः भारतेन्दुजीके मित्र उकता गये और कहा, 'यदि अव आप पाँच रुपयेकी वात निकालेंगे तो मुझे आपसे मिलने आना बन्द करना पड़ेगा।' भारतेन्दुजीने कहा, "भाई ! तुमने मुझे पाँच रुपयेकी सहायता ऐसे समयमें की है कि मैं प्रतिदिन पाँच रुपये दूं तो भी बदला नहीं उतार सकता। तुम तो मेरे महान उपकारी हो।' दयाके अवतार लगभग ईस्वी सन् १७७५की यह बात है। राजस्थानके जयपुर राज्यके तत्कालीन दीवान श्री अमरचन्दजी सौगानी अपने दयालु स्वभाव और दानवीरताके कारण समस्त पश्चिम भारतमें प्रसिद्ध थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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