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व्यर्थकी बातोंका त्याग
लगभग २५०० वर्ष पहलेकी बात हैं।
बौद्ध भिक्षुओंका संघ बिहारमें विहार करता था। मध्याह्नका समय था अतः भिक्षाभोजनसे निवृत्त होकर भिक्षुगण आरामर्फे
था ।
'मगधराज बिम्बिसार राजसम्पत्तिकी दृष्टिसे सबमें बड़े हैं एक भिक्षुने कहा ।
उसकी बात काटकर दूसरा भिक्षु बोला, 'कोशलके राजा प्रसेनजित सबसे बड़े हैं।'
इसप्रकार एक-दूसरेके साथ चर्चा हो रही थी तभी बुद्धदेव पधारे और पूछा, 'क्या बातचीत चलती हैं ?"
'प्रभु ! बिम्बिसारका वैभव बड़ा या प्रसेनजितका वैभव बड़ा इसकी चर्चा चल रही थी ।' तीसरे भिक्षुने अपने आसनसे उठकर नम्रतासे कहा ।
प्रभु बोले, 'हे भिक्षुओ ! संसारसे विरक्त होकर तुम आत्मकल्याणके मार्गमें लगे हुए हो। तुम्हें ऐसी तुच्छ संसारके सुखोंकी बातें नहीं करनी चाहिए, या तो धर्मवार्ता करो अथवा मौन रहो।"
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भिक्षुओने मनोमन लज्जित होकर मुख नीचे करके प्रभुकी आज्ञा शिरोधार्य की ।
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