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चारित्र्य-सुवास संस्कार, जैसे प्रजाको प्रिय थे वैसे राजाको भी प्रिय थे।
सातवीं शतीके महाकवियोंमें मेंठकी भी गणना होती थी। एक समय वे मातृगुप्तके राज्यमें पधारे। महाकविका आगमन होनेसे राजा और प्रजा सभी प्रसन्न हुए।
काश्मीरके राजदरबारमें खूब भीड़ इकट्ठी हुई थी। आज महाकवि मेंठ अपना प्रसिद्ध काव्य 'हयग्रीववध' प्रस्तुत करनेवाले थे इसलिए अनेक कलाकार और कविगण भी वहाँ पधारे
थे।
'महाराज ! आपके जीवनमें श्री और सरस्वतीका सुभग संगम हुआ है;' ऐसा कहकर कविने काव्यका आरम्भ किया। जैसे-जैसे काव्य-पठन आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे समस्त श्रोतागण रसविभोर होकर काव्यरसका आनन्द लेने लगे, परन्तु महाकविने देखा कि राजाके मुखपर कोई विशेष भाव दृष्टिगोचर नहीं होता अथवा धन्यवादके शब्द भी उनके मुखसे नहीं निकले।
ऐसा लगनेसे कविराज अपनी रचनाके पृष्ठोंको वाँधने लगे और अंतरमें विचार किया कि राजाको या तो अभिमान हो गया है या फिर मेरे कवित्वकी ईर्ष्या हुई है। ऐसे राजासे सन्मानकी आशा कैसे की जा सकती है ? अभी कविके मनमें ऐसे विचार थे तो राजाके मनमें अन्य ही विचार चल रहे थे और उसके फलस्वरूप राजाने उस रचनाके नीचे सुवर्णपात्र रख दिया और कहा : - 'कविराज! आप धन्य हैं। आपकी रचनाके एक-एक शब्दमें ऐसा माधुर्य और रसपूर्णता है कि उसका एक कण भी भूमिपर नहीं गिरना चाहिए ऐसा विचारकर मैं आपसे अपनी रचनाको इस सुवर्णपात्रमें रखनेकी प्रार्थना करता हूँ।'
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