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राष्ट्रका महालाभ
राज्याधिकारियोंकी नीतिमत्ता सत्यपरायणता तथा विवेकितासे प्रजामें नीति, सत्यनिष्ठा तथा विवेककी वृद्धि हो जाती है।
यदि राजा राज्याधिकारी या स्वामी उक्त संपूर्ण राजकीय गुणोंसे सम्पन्न होता है ( अर्थात् यदि वह नीतिमान विनयी ज्ञान-विज्ञान-संपन्न होता है) तो अमात्य, राजकर्मचारी तथा प्रजा भी इन सब गुणोंसे संपन्न बन जाती है। प्रजा पाप-पुण्य, नीति-अनीति, न्याय-अन्याय आदि प्रत्येक बात राजचरितसे सोखती है।
राशि धर्मिणि धर्मिष्टाः पापे पापाः समे समाः। राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ।। राजाके धर्मात्मा होने पर प्रजा धर्मात्मा, पापी होने पर पापी, सम होने. पर सम बन जाती है। प्रजा तो राजचरित्रका अनुसरण किया करती है । जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा बन जाती है । __ प्रकृति शब्द मन्मियों राज कर्मचारियों तथा देशके करदाता नागरिकों का वाचक है । राजा सुनिपुण तथा पूर्ण संयमी होकर राष्ट्रव्यवस्थाका संचा. लन करनेपर ही राष्ट्र की मानसिक तथा बौद्धिक योग्यता बढ़ती है । राजाको समस्त प्रजाको सपने औरस पुत्रों के समान पालना चाहिये । राजा वही सफल हो सकेगा और वही चिरकाल तक राज्यश्री भोग सकेगा जो प्रजाको अपने ही विराट परिवार के रूपमें देखेगा और उसके हिताहितमें पूरा पूरा सम्मिलित होकर रहेगा । जो राजा या राजकर्मचारी अपने स्वार्थको प्रजा या राष्टके स्वार्थ से अलग रखेगा, वह राष्ट्रका तथा अपना दोनों ही का नाश करके मानेगा । यही बात मार्कण्डेय पुराणमें “ प्रजाः पुत्रानिवारसान् ” में कही है।
(प्रजाजनोंकी गुणवृद्धिसे राष्ट्रका महालाभ ) प्रकृतिसम्पदा ह्यनायकमपि राज्यं नीयते ॥१२॥ प्रजाजनोंके नीतिसम्पन्न होनेपर किसी कारण राजाका अभाव हो जानेपर भी राज्य सुपरिचालित रहता है।