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भूमिका
महापातकी के लिए विधान है कि वह जटा धारण करे और तीन वर्ष तक रात्रि में केवल एक बार पिण्याक व धान्यकणों का भोजन करे। महापातकी व्यक्ति के साथ बातचीत आदि पारस्परिक व्यवहार करना और उसका अभ्युत्थान करना वर्जनीय माना गया है।
वज्रऋषभनाराच संहनन वाले प्रतिसेवी को ही तप पारांचित (दसवां प्रायश्चित्त) दिया जा सकता है। धृति और संहनन का गहरा संबंध है। हीन संहननी की अपेक्षा दृढ़ संहननी अधिक धृति सम्पन्न होता है। जो अल्पतम शक्ति वाला (सेवात संहननी) प्राणी है, वह ऊर्ध्वगति में चौथे कल्प से और अधोगति में दूसरी नरक से आगे नहीं जा सकता।
प्राचीन काल में विद्यार्थियों के लिए गुरुकुलवास की व्यवस्था थी। धर्मसंघों में भी यह व्यवस्था मान्य थी कि ज्ञानपिपासु शिष्य विपुल ज्ञानार्जन के लिए अपने गण को छोड़कर दूसरे गण की उपसम्पदा स्वीकार कर सकता था। प्रयोजन पूर्ण होने पर वह पुन: अपने गण में लौट आता था। वह जिस दूसरे गण में जाता, वहां उसकी कड़ी परीक्षा की जाती और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रतीच्छक के रूप में वहां रहने की स्वीकृति मिलती थी। गुरु (आचार्य) उसे स्पष्ट भाषा में कहते-तुम्हारा गच्छ पितृगृहस्थानीय है और हमारा गच्छ तुम्हारे लिए श्वसुरगृहस्थानीय है । श्वसुरगृह में वधू का प्रमाद क्षम्य नहीं होता। हम तुम्हारा प्रमाद सहन नहीं करेंगे। सावधान करने पर भी तीन बार से अधिक एक गलती को दोहराया तो गण से निष्कासित भी कर देंगे। इतना सहने की क्षमता हो तो यहां रहना, अन्यथा नहीं। आगन्तुक शिष्य भी गुरु की परीक्षा करते थे। इससे ज्ञान-विकास की अविच्छिन्न परम्परा चलती थी।
श्रुतज्ञान तृतीय नेत्र है। उसकी अव्युच्छित्ति के लिए अतिशय श्रुतधर (सम्पूर्ण दशपूर्वी आदि) मुनि जिनकल्प आदि प्रतिमाएं स्वीकार नहीं कर सकते। वे अपने श्रुतज्ञान से शासन की प्रभावना करते हैं। संघ को चिरायु बनाने वाला स्थायी आधार है श्रुत। जो मुनि श्रुतधर (चौदहपूर्वी) मुनि का वैयावृत्य करता है, वह विपुलतम निर्जरा करता है।
प्रस्तुत ग्रंथ विषय कोश है। इसमें १२४ विषयों का संग्रहण है। तत्त्वदर्शन, कर्मसिद्धांत, चिकित्साशास्त्र, आचारसंहिता, प्रायश्चित्तसंहिता, जीवविज्ञान, मनोविज्ञान, इतिहास आदि अनेक दृष्टियों का इसमें समावेश है इसका पाठक के लिए बहुत मूल्य है। शोध विद्यार्थी के लिए इसका उससे भी अधिक मूल्य है। अनेक ग्रंथों की सामग्री का एक साथ संकलन करने में कोशकार का श्रम शोधकर्ता के श्रम को स्वल्प बना देता है। उदाहरणस्वरूप आगम' का प्रकरण प्रस्तुत किया जा सकता है।
आगम संपादन के प्रारंभकाल में विषय कोश की कल्पना की गई थी। मोहनलाल बांठिया ने यह कार्य प्रारंभ किया। लेश्या कोश आदि अनेक ग्रंथ संपादित होकर सामने आ गए। यह कार्य बहुत बड़ा है। जिस गति से चल रहा है, उससे दीर्घ काल लग सकता है, शीघ्र सम्पन्नता की संभावना भी नहीं है। इस स्थिति को ध्यान १. याज्ञवल्क्य स्मृति ३/५/२४३, २५४ २. प्रस्तुत कोश, पृ १६४, ३५६ ३. वही, पृ१४७, १४८ ४. वही, पृ २५५, ५२१, ५७८
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