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भूमिका
देशकथा, भक्तकथा, स्त्रीकथा तथा राजकथा हमारे लिए करणीय नहीं है-ऐसा कहने पर भी कोई विकथा से विरत नहीं होता है, तब कलह हो सकता है।
भिक्षु अधिकरण कर उस अधिकरण का व्युपशमन किए बिना गृहपति के घर में आहार या पानी के लिए गमन और प्रवेश नहीं कर सकता, बाहर विचारभूमि और विहारभूमि में नहीं जा सकता, ग्रामानुग्राम विहरण, एक गण से दूसरे गण में संक्रमण नहीं कर सकता और वर्षावास में स्थित नहीं हो सकता।
किसी के साथ कलह होने पर भिक्षु उसका उपशमन कर दे। कलह का उपशमन कर देने पर सामने वाला उसे बहुमान दे या न दे, उसके आने पर खड़ा हो या न हो, उसे वन्दन करे या न करे, उसके साथ भोजन करे या न करे, उसके साथ रहे या न रहे, वह कलह का उपशमन करे या न करे, वह उसकी इच्छा है। जो कलह का उपशमन करता है, उसके आराधना होती है। जो उपशमन नहीं करता, उसके आराधना नहीं होती : इसलिए व्यक्ति अपनी ओर से कलह का उपशमन करे।
परस्पर कलह होने पर जितने गृहस्थों या साधुओं ने उसे देखा है, उन सबको एकत्रित कर उनके सम्मुख क्षमा का आदान-प्रदान करना चाहिए। इससे अनेक लाभ होते हैं-गृहस्थ और शैक्ष साधु उस दृश्य को देख यह सोचते हैं-अहो! साधुओं का हृदय नवनीत की भांति कोमल होता है तथा उन्हें (दर्शकों को) यह भी बोध हो जाता है कि साधु कलह उत्पन्न होने पर उपशमन और क्षमायाचना-क्षमादान कर्मक्षय के लिए करते हैं, दण्ड के भय से नहीं।
यदि अनुपशांत अवस्था में एक साधु अन्यत्र सुदूर क्षेत्र में चला गया हो तो दूसरा साधु वहां जाकर क्षमायाचना करे। वैयावृत्त्यकरण, बीहड़ मार्ग, स्वजनों का उपसर्ग आदि-आदि कारणों से स्वयं वहां न जा सके और कोई भद्र श्रावक उस क्षेत्र में जा रहा हो तो उसके साथ क्षमा का संदेश भेजे।
यदि संदेशवाहक न मिले तो स्वयं अपने मन से कलह का भाव सर्वथा समाप्त कर दे। फिर कभी कहीं मिले, वहीं क्षमायाचना करे। यदि कभी कहीं मिलने की संभावना न हो तो अपने गुरु के पास आकर उसका स्मरण कर मानसिक संकल्प के साथ उससे क्षमायाचना करे।
छेदसूत्रों में प्रायश्चित्त के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं। बड़े अपराधों में कड़े दंडों का विधान है। तीर्थंकर और संघ की आशातना करना, तीव्र कषाय का उदय, स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय, मैथुनसेवन-इन उत्कृष्ट अपराधों में पारांचित प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रायश्चित्तवाहक उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक साधु-क्षेत्र से बाहर अकेला रहता है
और जिनकल्पी-सदृश कठोर साधना करता है। परिहारतपप्रायश्चित्तवाहक परस्पर किसी से भी बातचीत नहीं कर सकता, मंडलीभोजन नहीं कर सकता।
बौद्ध परम्परा में भी कठोर दंड का विधान है। मैथुनप्रतिसेवी को पाराजिक प्रायश्चित्त दिया जाता है और उसे संघ से बहिष्कृत किया जाता है। वैदिक परम्परा में ब्रह्महत्या करने वाले महापातकी को कठोर दंड दिया जाता है। वह बारह वर्ष तक जंगल में कुटी बनाकर रहता है और भिक्षा से जीवन-यापन करता है। सुरापान करने वाले
१. प्रस्तुत कोश, पृ १३-१५ २. वही, पृ३३१, ३५७ ३. विनयपिटक, पाचित्तिय, पाराजिककांड
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