________________
२० ]
भगवान पार्श्वनाथ ।
जैनशास्त्रों में तीर्थंकर पद मनुष्य भवका सर्वोच्च दर्जा मानां गया है और उसका अधिकारी हरएक प्राणी होसक्ता है, यदि वह वहां बताये गये नियमों का पूर्ण पालन अपने जन्मान्तरोंमें करले वह नियम इस तरह बताए गए हैं:
(१) दर्शन विशुद्धि - सम्यग्दर्शन, आत्मश्रद्धानकी विशुद्धता
प्राप्त करना ।
(२) विनयसम्पन्नता - मुक्ति प्राप्तिके साधनों अर्थात् रत्नत्रयके प्रति और उनके प्रति जो उसका अभ्यास कर रहे हैं विनय करना । (३) शील वनेष्वनतिचार - अतीचाररहित अर्थात् निर्दोष रूपसे पांच व्रतों का पालन और कषायोंका पूर्ण दमन करना ।
(४) अभ क्ष्ण ज्ञानोपयोग - सम्यग्ज्ञानकी संलग्नता में - स्वाध्याय में अविरतं दत्तचित्त रहना ।
(५) संवेग-संसार से विरक्तता और धर्मसे प्रेम रखना । (६) शक्ति-स्त्याग - यथाशक्ति त्यागभावका अभ्यास करना । (७) शक्तितस्तप-शक्ति परिमाण तपको धारण करना । ८) साधुपमा साधुओं की सेवासुश्रूषा और रक्षा करना । (९) वैयावृत्य करना - सर्व प्राणियों खासकर धर्मात्माओंकी वैयावृत्य करना ।
"
(१०) अद्भक्ति - अर्हतु भगवानकी भक्ति करना | (११) आचार्य भक्ति - आचार्य परमेष्ठी की उपासना करना । (१२) बहुश्रुतभक्ति - उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना । (१३) प्रवचनभक्ति - शास्त्रोंकी विनय करना ।
(४) नावश्य का परिहाणि - षडावश्यकों के पालन में शिथिल न होना ।