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बनारस और राजा विश्वसेन ।
दात्ताभोक्ता विचारज्ञो नीतिमार्गप्रवर्तकः । गुणी प्रजाप्रियो दक्षः ज्ञानत्रयविभूषितः ॥ ३९ ॥”× वहां के राजा विश्वसेन सचमुच चंद्रमाके समान कलाधर थे और उनका तेज सूर्यके समान था । वह कल्पवृक्षोंकी तरह सबको संतुष्ट करनेवाले थे। जिनेन्द्र भगवान के चरण-कमलों में परम आसक्त थे । भगवान नेमिनाथके पवित्र तीर्थमें विचरते हुये सर्व हितैषी, तिलतुषमात्र परिग्रह रहित परमविवेकी निर्ग्रथ गुरुओं की वह सदा सेवा किया करते थे । मुनिराजोंको विधिपूर्वक पड़गाह कर भक्तिसे गद्गद होकर वह राजा पुण्यके द्वार आहारदानको दिया करते थे । उन सद्गुरुओं के वचनामृतका पान तृषित चातककी भांति वह नित्य ही करते था । धर्माचरण और सदाचारके पालनमें वह कोई को कसर उठा न रखते थे । कामदेवको लजानेवाले रूपको धारण किये हुये वह दान देनेके लिये दाता थे । भोगोपभोगकी सामिग्रीका उपभोग करनेके लिए भोक्ता थे और राज्यरक्षाका समुचित प्रबंध करनेके लिये विचारज्ञ थे । फिर भला ऐसे धर्मवत्सल नृपका प्रवर्तन नीतिमार्ग में होना स्वाभाविक ही था । वह गुणी था - प्रजाप्रिय था और पूर्ण दक्ष था । और तो और मति, श्रुति और अवधि इन तीन ज्ञानोंसे विभूषित था । इसलिये वह साधारण मनुष्योंसे कुछ विशेष था !
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इन प्रजावत्सल महाराज विश्वसेनकी पट्टरानीका नाम ब्रह्मदत्ता था । वह महीपालपुरके राजा महीपालकी पुत्री थी। जैसे ही राजा विश्वसेन रूप और गुणोंमें अद्वितीय थे वैसी ही वह उनकी प्रिय अर्द्धांगिनी थीं । उनको पाकर राजाके निकट 'सोनेमें सुगंधि' की
* श्री सकलकीर्ति आचार्य विरचित 'पार्श्वचरित' सर्ग १० श्लो० ३६-३९..