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११६] भगवान पार्श्वनाथ । कल्याणकारी जन्म हुआ जाना, तो वे बनारसकी ओर चल दिये। बड़ी सनधनके साथ सौधर्मेन्द्र भी आया एवं और सब देव भी आये। सबोंने मिलकर बड़ा भारी आनंदोत्सव मनाया । आखिर सौधर्मेन्द्रकी आज्ञासे शचीने महाराणी ब्रह्मदत्ताको निद्राके वशीभूत कर दिया और एक मायामई बालक उनके पास लिटाकर वह बालक भगवानको इंद्रके पास ले आई । इन्द्र अनुपम बालकको देखते ही गद्गद होगया । उनके अपूर्व रूप लावण्यको दो आंखोंसे ही देखकर वह तृप्त न हुआ; बल्कि अपनी तृष्णाको मेटनेके लिये उसने अनेक कृत्रिम नेत्र बनाकर बालक-भगवानके दर्शन किये और उनकी विशेष रीतिसे स्तुति की। उपरान्त भगवानका जन्माभिषेक करनेके लिये वह सुमेरुगिरि पर्वतपर लेगया । वहकि पांडुकवनमें रत्ननटित शिलापर भगवानको विराजमान किया और क्षीरसागरका निर्मल जल देवोंद्वारा मंगवाकर उसने भगवानका अभिघेक १००८ कलशोंद्वारा किया । उस समय अद्भुत उत्साह चहुं
ओर दृष्टि पड़ने लगा। सब ही सुरांगणाएं जयजयकार करने लगीं। एक कोलाहलसा मच गया ! जैन कवि भगवानके अभिषेक संबंधों कहता है किः
‘जा धारासो' गिरिसिखर, खंड खंड हो जाय । सो धाग जिन देहो, फूलकली सम थाय ॥ अप्रमान वीरज , धनी, तीर्थकर प्रभु होय । ताते तिनकी सकतिकौं, उपमा लगै न कोय ॥ नीलवरन प्रभु देहपर, कलस-नीर छबि एम । नीलाचल सिर हेमके, बादल बरसें जेम ॥ चली न्हौनके नीरकी, उछल छटा नभ माहि ।