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भगवान पार्श्वनाथ |
जैनशास्त्र ऐसे उदाहरणोंसे भरे पड़े हैं जिनमें वृद्धावस्था के आते ही लोगोंने सन्यासको धारण किया है। सन्यासमें शरीर से ममत्व रहता ही नहीं है और अन्ततः सल्लेखना द्वारा समाधिमरण करना आवश्यक होता है । कापी लोगों में ऐसा ही रिवाज प्रचलित होगा । इसी कारण स्ट्रेबो उसका उल्लेख विकृतरूपमें कर रहा है । आजकल भी अनेक विद्वान् जैन सल्लेखनाका भाव भूखों मरना समझते हैं; किन्तु वास्तव में उसका भाव आत्मघात करनेका नहीं है । कंदवक वावड़ीसे प्रद्युम्न पातालमुखी बावड़ी में पहुंचे थे । इसका नाम अन्तमें लिया गया हैं, इसलिये संभव है कि यह रसातल अथवा रसा-तेले (Rasa-tele) होगा जो रसा अर्थात् अक्षरतस उपत्ययका थी' और यहांसे भारतकी सरहद भी बहुत दूर नहीं रह जाती थी; क्योंकि अफगानिस्तान यहांसे दूर नहीं है, जो पहले भारत में सम्मिलित और उसका उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रान्त था । ' - इस प्रकार उत्तरपुराणके कथनसे भी पाताल अथवा नागलोकका मध्य एशिया में होना प्रमाणित होजाता है; जैसा कि आजकल विद्वान् प्रमाणित करते हैं, किन्तु इतना ध्यान रहे कि जैन दृष्टिसे यह 'याताल लोक देव योनिका पाताल नहीं है; बल्कि विद्याधरके वंशजोंका निवास स्थान है ।
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आजकलके विद्वान् मध्य एशिया में बसनेवाली उपरोक्त जातियोंको अनार्य समझते हैं; परन्तु जैनदृष्टिसे वह अनार्य नहीं हैं; क्योंकि पहले तो वह आर्यखण्डमें वसते थे; इसलिए क्षेत्र अपेक्षा आर्य थे और फिर यह लोग अपनेको काश्यपका वंशज बत
इन्डिया,
१ - पूर्व० भाग १ प्र० ४५६ । २ - कनिंघम, ए० जाग ० पृ० १०० - १०३ और नोट पृ० ६७२ । ३- इन्डि० हिस्टॉ० कारटल भाग २- १० २४० ।