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भगवान पार्श्वनाथ |
नोंको मान्यता देते हुये मध्यलोककी पृथ्वीको ढलवां मानना पड़ेगा, जिससे दक्षिण दिशा की ओर नीचे ढलते हुये खरपृथ्वी अधोलोक में आसक्ती है । जम्बूद्वीपकी नदियां जो आमने सामने इधर उधर बहतीं बतलाई गई हैं, उससे भी यही अनुमान होता है कि यह पृथ्वी बीचमें उठी हुई और किनारोंकी ओरको ढलवां है; परन्तु शास्त्रों में इस विषयका कोई स्पष्ट उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया है । अतएव इस विषय में कोई निश्चयात्मक बात नहीं कही जा सक्ती है । किन्तु इतना अवश्य है कि यह विषय विचारणीय है । जैन भौगोलिक मान्यताओंको स्वतंत्र रीतिसे अध्ययन करके प्रमाणित करने की आवश्यक्ता है । जैनशास्त्रों में जिस स्पष्टता के साथ भौगोलिक वर्णन दिया हुआ है; उसको देखते हुए उसमें शंका करनेको जी नहीं चाहता है, परन्तु जरूरत उसको सप्रमाण प्रकाशमें लाने की है ।
अस्तु, यह तो स्पष्ट ही है कि धरणेन्द्रका निवासस्थान पाताल अथवा नागलोक है । दि० जैन समाजमें उसकी मूर्ति पांच कण कर युक्त और चार हाथवाली बतलाई गई है । दो हाथोंमें उनके सर्प होते हैं, तथापि अन्य दो हाथ छातीसे लगे हुये रहते हैं, जिनमें एक खुला हुआ और एक मुट्ठी बंधा हुआ होता है। इनकी सवारी कछुवेकी बतलाई गई है।' इनकी अग्रमहिषी पद्मावती भी पांच फणवाले सर्पके छत्रसे युक्त चार हाथवाली मानी गई है। इनके दो हाथों में वज्रदंड और गदा होती है एवं अन्य दो हाथ उसी रूपमें होते हैं, जिस रूपमें धरणेन्द्रके बतलाये गए हैं ।
१. डर जैनिसमस प्लेट नं० २७ ।
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