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भगवान पार्श्वनाथ |
रहे । ज्योनारोंके समय भी इसी शिक्षाका प्रबंध था । 'उस आमोद प्रमोद के समय भी लोगोंको परभवकी याद दिला दी जाती थी । यह पुरोहित मच्छी, शोरवा, मटर, मूली, शलजम आदि भी नहीं खाते थे और उनके भोजन में शाकाहारकी प्रधानता रहती थी । यद्यपि मांससे उन्हें परहेज था यह विदित नहीं होता !" यह शायद उपरान्त क्षेत्र और कालके प्रभाव अनुसार मांस ग्रहण करने भी लगे थे; यद्यपि मूल धर्मके खास नियमोंके पालन में ही उसकी पूर्ति समझ ली होगी । मच्छी शोरवाका परहेज मांस त्यागका द्योतक है । मटर द्विदल, और मूली शलजम मन्द त्यागका परिचायक है। यूनानी लोग, जो मिश्रवासियोंके ही शिष्य थे, सर्व प्रकार के द्विदल-दाल ( Beans) के त्यागी होते थे । जैन शास्त्रों में द्विदलका खाना माना है, दालको दूध या दहीके साथ मिलाकर खानेसे अनन्ते सूक्ष्म जीव वहां उत्पन्न होजाते हैं । इसीलिए उनको खाना मना है । मिश्र और यूनानवासियोंको जो दालके ग्रहण करनेकी मनाई है, वह इसी भावको लक्ष्यकर है। यूनानवासियोंने जैन मुनियोंसे शिक्षा ग्रहण की थी यह इतिहास सिद्ध बात है । भृगुकच्छसंघके एक श्रमणाचार्य नामक "जैन मुनिकी सल्लेखनाका उल्लेख करनेवाला लेख उनके समाधिस्थानपर आज भी अथेन्समें मौजूद है। यूनानियोंकी धार्मिक मान्यतायें भी जैनधर्मके समान ही हैं। और वे मिश्रवासियोंके शिष्य थे.
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१- पूर्व० पृ० २१२२ - पूर्व० पृ० १९१ ३-४ - पूर्व प्रमाण । ५ - पूर्व पृ० १८७ ६ - अडेन्डा टू कान्फ्लूयन्स ऑफ ऑपोजिट्स पृ० २ ७ - पूर्व ० पृ० ३ और हिस्टारीकल ग्लीनिन्ग्स पृ० ४२ ८१६ - इन्डि० हिस्टा० क्वाटर्ली भाग २ पृ० २९३९ - 'वीर' भाग ५.