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भगवान पार्श्वनाथ |
निकट अवस्थित उनका दीक्षावन बतलाया गया है । इसलिये अहिच्छत्र में जिस नागराजने भगवानकी विनय की थी और उनपर सर्प - फण कर युक्त छत्र लगाया था वह एक नागवंशी राजा ही होना चाहिये | नागवंशी लोगों के सर्प फण कर युक्त छत्र शीशपर 1 रहता था वह पूर्वोल्लिखित मथुराके आयागपटमें की नागकन्याके उल्लेख से स्पष्ट है एवं वहींकी एक अन्य जैन मूर्तिमें स्वयं एक नाग राजाका चित्र है और उसके शीशपर भी नागफणका छत्र है । तिसपर चीन यात्री नत्सांग का कथन है कि बौद्धोंका भी अहिच्छत्र से सम्बन्ध था | वहां वह एक 'नागहृद' बतलाता है जिसके निकटसे बुद्धने सात दिन तक एक नाग राजाको उपदेश दिया था । राजा अशोकने यहीं एक स्तूप बनवा दिया था।' आजकल वहां केवल स्तूपका पता चलता है जो 'छत्र' नामसे प्रख्यात है । इससे कनिंघम सा० यह अनुमान लगाते हैं कि नाग राजाके बौद्ध हो जानेपर उसने बुद्धपर नाग फणका छत्र लगाया होगा, जिसके ही कारण यह स्थान 'अहिच्छत्र' के नामसे विख्यात् होगया । परन्तु बात दर असल यूं नहीं है, क्योंकि जैनशास्त्रोंके कथनसे हमें पता चलता है कि वह स्थान म० बुद्धके पहिलेसे अहिच्छत्र कहलाने लगा था । हत्भाग्य से कनिंघम सा० को जैनधर्मके बारेमें कुछ भी परिचय प्राप्त नहीं था; उसी कारण वह अहिच्छत्रका जैन सम्बंध प्रगट न कर सके | अतएव नत्सांगके उक्त उल्लेखसे यह तो स्पष्ट ही है कि अहिच्छत्र में नाग राजाओंका राज्य म० बुद्धके समयमें
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१ - कनिंघम, एनशियेन्ट जागराफी ऑफ इन्डिया पृ० २ - पूर्व प्रमाण ।