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कुमारजीवन और तापस समागम। [१२५. व्यथित हुआ। दयाके आगार उन सर्वहितैषी भगवानने उस तापससे कहा कि 'तुम व्यर्थ ही तपस्या करते हो। क्रोध आदि कषायोंसे तुम्हारा सब पुण्य नष्ट होगया ! हिंसामई काण्ड रचकर तुम तपस्या करनेका ढोंग क्यों रचते हो ? क्या तुम्हारे हृदयमें दया बिल्कुल नहीं है ? तुम्हारा यह सब तप अज्ञानतप है। कोरा कायक्लेश है, इसे भोगकर क्या लाभ उठाओगे ?' - तापप्त महीपाल वैसे ही कुढ़ रहा था। वह उन्मत्त पुरुषके समान “कहने लगा कि 'तू बड़ा घमण्डी है । अकस्मात् यह सर्पयुगल इस लक्कड़में निकल आया उसपर तू फूला नहीं समाता है । तू अपनी पूज्य माताके पिताकी अविनय कर रहा है । देख मैं तापस होकर कितनी कठिन तपस्या करता हूं। पंचाग्नि तपता हूं-एक पैरसे खड़े रहकर एक हाथको आकाशमें उठाकर, भूख व प्यास सब कुछ चुपचाप सह रहा हूं, सूखे पत्ते खाकर पारणा करता हूं, फिर भी तुम मेरी तपस्याको ज्ञानहीन बताते हो !'
भगवानने फिर भी उसे मधुर शब्दोंमें समझाया । उससे कहा-"तापस, तुम क्रुद्ध मत हो । मैं तुम्हारी भलाईके वचन कह रहा हूं। तुम्हारा तपश्चरण इतना सब होनेपर भी हिंसामय है और' तुम वृथा ही कायक्लेश भोग रहे हो। जरासी भी हिंसा महादुःखका कारण है, और तुम रोज ही हिंसाकांड रचते हो, इसका पाप फल तुम्हें जरूर ही चखना होगा । 'ज्ञानहीन तपस्या चांवलकी कणिकाके भूसेके ढेरके समान है। अग्निके प्रकोपसे जब बन जलने लगता है, तब लोग रास्ता न पाकर जिस प्रकार यहां वहां भागकर अन्तमें अग्निमें ही जलकर प्राण देदेते हैं, अज्ञानी तापत ठीक.