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कुमारजीवन और तापस समागम ।
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कुमारजीवन और तापस समागम ! 'हिमकर मुखमंबुजोपमाक्ष पुरपरि धायतबाहु तुच्छमध्यम् । पृथुतर विलसद्विशाल वक्षस्तर लतमाल रुचिप्रकाश रुच्यम् ।।६१ अतिसित रुधिरं सरोजगंधि व्यपसृत धर्मजलं मलादपोढम् । प्रसकल शुभलक्षणोपपन्नं प्रथमक संहननं मनोज्ञ कांतिम् ||६२ कुलगिरितल भूमि संधिबन्धं लथपरिहास विधिक्षमं जवेन । वपुरथ परमेश्वरेण बभ्रु शतमख हस्तसरोजराजविंवम् ॥६३॥ ________पार्श्वनाथचरित्र |
तीनों लोकोंको सुख दाता जिनेन्द्र पार्श्वनाथका जन्म हो गया । वे बालक भगवान शुक्ल पक्षके चन्द्रमाकी तरह धीरे२ बढ़ने लगे, शिशु अवस्थाकी कोमल मुस्कान और सरल अठखिलियोंसे माता-पिता और बंधुजनोंका मन हरने लगे, देखते २ वे अटपटे पैरोंसे चलने भी लगे । अपने प्रफुलित मुख और बाल्यकालीन चंचल क्रीड़ाओंसे सबको बड़े ही प्रिय लगने लगे । कभी आप उझककर धायसे दूर भाग जाते; तो कभी रत्नजड़ित दीवालों में अपनी परछाई देखकर उसको पकड़नेको कोशिष करते । इस तरह बाललीला करते वह आठ वर्षके होगये । इस नन्हींसी उमरमें ही उनकी बुद्धि बड़ी कुशाग्र थी और वे नैतिक आचारकी मर्यादाका पालन करने लगे थे । जैन शास्त्र कहते हैं कि इसी समय आपने श्रावकोंके अणुव्रतोंको धारण किया था ।' हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील
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१ - वर्षाष्टमे स्वयं देवविज्ञानज्ञः संपंचधा ।
आददेणुव्रतान्येव गुणशिक्षाव्रतानि च ॥ १७ ॥