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भगवानका शुभ अवतार !
[ १११ किक बातें भी धर्मात्माके निकट अपनी अलौकिकता खो बैठतीं हैं । - तीनों लोकोंमें कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो धर्मसे बढ़कर हो और उसकी आराधना से वह मिल न सके ! और न ऐसा कोई कार्य है जो धर्म - प्रभावसे सुगम न होजाय ! भौतिकवादके वर्तमानकालमें -रहते हुये साधारण मनुष्योंके लिये अवश्य ही यह सब आश्चर्य भरी बातें हैं, परन्तु जिसे आत्माकी अनन्त शक्ति में विश्वास है, उसके लिये यहां विस्मयको कोई स्थान ही शेष नहीं है । देव भी कोई विशेष पुण्यवान् जीव हैं, यह आज पाश्चात्य भौतिकवादी भी स्वीकार करने लगे हैं । ब्राह्मण और बौद्धग्रन्थ भी प्राचीनकाल में यहां देवोंके आगमनका वर्णन करते मिलते हैं । इस दशा में जैनशास्त्रोंके उक्त कथनमें विस्मय करना वृथा ही है । अस्तु !
एकदा राजदरबार लगा हुआ था । मंत्री, सेनापति, राजकर्मचारी और सब ही दरबारी अपने २ स्थानपर बैठे हुये थे । राजा विश्वसेन भी राज्य सिंहासन पर विराजमान थे, राज्यछत्र लगा हुआ था, चंवर ढोले जा रहे थे । इसी समय अन्तःपुरवाले मार्गकी ओरसे जय-जयकारका घोष सुनाई दिया। देखते ही देखते परिचारिकाओंसे वेष्टित महारणी ब्रह्मदत्ता वहां आती हुई दिखलाई दीं । दरबारियोंने यथोचित रीतिसे महाराणीका स्वागत किया और राजा विश्वसेनने बड़े आदर से उन्हें अपने पास आधे आसनपर बैठा लिया । सचमुच उस समय दरबारी तो ऐसे मालूम होते थे जैसे हारे हों और राजा विश्वसेन उनमें चांद सरीखे थे, तथापि महाराणी उनके बीच चंद्रिका के अनुरूप विकसित हो रहीं थीं। इस अवसर पर सब ही लोग उत्सुकता से महाराणीके