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१८] भगवान पार्श्वनाथ । तिक धर्म था जो बादमें हिन्दूधर्म या ब्राह्मण धर्मके नामसे ज्ञात हुआ । इस धर्ममें बहुत प्राचीन मनुष्योंकी मानतायें, पित्रजनोंकी पूजा, क्रियाकांड, प्रचलित पौराणिक वाद आदि गर्भित थे। यह बिल्कुल ही प्रकृति (Nature) की पूनाका धर्म था । और जबतक मनुष्य चुपचाप प्राचीन रीतियोंको मानते हुए रहे तबतक इस वातकी किसीको फिकर ही न हुई कि सैद्धान्तिक मन्तव्य किसके क्या हैं ? "' इसतरह इससे भी यह बात प्रकट है कि पहले यहां वृक्ष जल आदि प्राकृतिक वस्तुओंकी पूजा भी प्रचलित थी। परन्तु तब यहां क्या केवल यही एक धर्म था, इसके लिए इस उक्त विद्वान्के कथनको नजरमें रखते हुए हम अगाड़ी विवेचन करेंगे। यहांपर उपरोक्त जैन कथाके शेष भागको देखकर हम उस समयके धार्मिक वातावरणके जो और दर्शन होते हैं, वह देख लेना उचित समझते हैं।
उक्त जैन कथा अगाड़ी कहा गया है कि " वह श्रावक उस ब्राह्मणके साथ गंगानदीके किनारे गया । भूख लगनेपर उस नदीके जलको मणिगंगा नामका उत्तम तीर्थ समझकर स्नान किया और इसतरह तीर्थमूढताका काम किया । तदनंतर जब वह ब्राह्मण खानेकी इच्छा करने लगा तब श्रावकने पहले खाकर उस बचे हुये उच्छिष्ट भोजनमें गंगानदीका वही पानी मिलाकर उस ब्राह्मणको दिया और हित बतलाने के लिये कहा कि गंगाका जल मिल जानेसे यह भोजन पवित्र है इसे खाओ । उसे देखकर वह ब्राह्मण कहने लगा कि तेरा उच्छिष्ट भोजन मैं कैसे खाऊं, तब उस श्रावकने
१-दी हिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० ३६५.