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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [७३. 'पाठकगण इससे पूर्वकी धार्मिक दशाका भी परिचय प्राप्त करने जिससे इसका और भी स्पष्ट दृश्य प्रगट होनाय और पूर्वोल्लिखित विहानके वर्णनक्रमका दिग्दर्शन प्राप्त होनाय ।
___ डॉ० बेनीमाधव बारुआने अपनी 'एहिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी' नामक पुस्तकमें हमें भारतके धार्मिक विकाशका अच्छा दिग्दर्शन कराया है । आपने पहले ही वेदोंके ऋषियोंको प्राकृत-धर्म (Natural) निरूपण करनेवाला बतलाया है और आपकी दृष्टिकोणसे वह प्रायः ठीक है। परन्तु यदि हम वेदोंके मंत्रोंको शब्दार्थमें ग्रहण न करें और उन्हें अलंकृत भाषाके आत्मा संबंधी राग ही मानें, तो भी उनका अर्थ और अधिक स्पष्टतःसे ठीक बैठ जाता है । यह वैदिक ऋषिगण 'कवि'. नामसे परिचित भी हुए हैं। तथापि यह भी स्पष्ट है कि प्राचीन भारतमें अलंकृत भाषाका व्यवहार होता था। और हिन्दुओंके वेद उस भाषासे अलग किसी दूसरी भाषामें नहीं लिखे गये हैं। इस दशामें उनको शब्दार्थमें ग्रहण करना कुछ ठीक नहीं नंचता है । जेन शास्त्रों में यह स्वीकार किया गया है कि स्वयं भगवान ऋषभदेवके समयसे ही पाखण्डमतोंकी उत्पत्ति मारीचि द्वारा होगई थी। और इधर वेद भी इस बातको स्वीकार करते हैं कि उनके - १-ऋग्वेद १।१६४,६; १०।१२९,४ । २-हिन्दी विश्वकोष भाग १ पृष्ठ ६०-६७ । ३-मि० एय्यरने अपनी “दी परमानेन्ट हिस्ट्री ऑफ भारतवर्ष में यही व्यक्त किया है तथापि वि.वा. पं० चम्पतरायजीने 'असहमतसंगम' आदि ग्रंथों में यही प्रकट किया है । स्वयं हिन्दू ऋषि 'आत्मरामायण' के कतने भी इस व्याख्याको स्पष्ट कर दिया है। ये ग्रंथ देखना चाहिए। ४-आदिशुराम प्रर्ब १८-15-२०। ३-२१७ ।