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भगवान पार्श्वनाथ ।
सम्बन्धी क्रमके किञ्चित् दर्शन हमें मिलते हैं, यह हम ऊपर कह चुके हैं । सचमुच वहां पहले यही कहा गया है कि यद्यपि स्वयं भगवान ऋषभदेव के समय में ही मरीचि द्वारा पाखंड मतकी उत्पत्ति होगई थी परन्तु धर्मकी विच्छित्ति भगवान शीतलनाथ तक प्रायः नहीं हुई थी। हां, इन शीतलनाथ तीर्थंकरके अंतिम समय में आकर अवश्य ही जैनधर्मका नाश होगया था और भूतिशर्मा ब्राह्मणके पुत्र मुंडशालयनने मिथ्याशास्त्रोंकी रचनाकर पृथ्वी, सुवर्णका दान देना सर्व साधारण के लिए आवश्यक बतलाया था । ' उपरान्त श्रेयांसनाथ भगवान द्वारा जैनधर्मका उद्योत पुनः होगया था परन्तु भगवान मुनिसुव्रतनाथके तीर्थकाल में जाकर अहिंसा धर्मके विरुद्ध पुनः उधम मचा था । राजा वसुके राजत्वकालमें पर्वत आदिने हिंसाजनक यज्ञोंकी आविष्कृति की थी । 'अज' शब्दके अर्थ ' शालि धान्य' के स्थानपर इनने 'बकरा' मानकर पशुओंका हो मना वेदोक्त बतलाया था और फिर नरमेधतक रच दिया था । * परन्तु इसके पहले अरनाथ तीर्थंकरके समय में ब्राह्मण साधु स्त्री संहित रहने लगे थे, यह भी बतलाया गया है । अयोध्या के राजा सहस्रवाहुके काका शतुविंदकी स्त्री श्रीमतीसे उत्पन्न जमदग्नि द्वारा इस प्रथाका जन्म हुआ था । यहांपर इस वेदवाक्यका उल्लेख. जैनशास्त्रमें किया गया है कि पुत्र विना मनुष्यकी गति नहीं होती है । (अपुत्रस्यगतिर्नास्तीत्यार्ष किं न त्वया श्रुतं ) जमदग्निने अपने मामा पारत देशके राजाकी छोटी पुत्रीसे विवाह किया था, जिससे इनके दो पुत्र इन्द्रराम और श्वेतराम हुये थे । सहस्रबाहुने
१ - उत्तरपुराण पृष्ठ १०० । २ - पूर्व० पृष्ठ ३३९ - ३५१ ।