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७८] भगवान पार्श्वनाथ । .. ही मानी गई है और मन एक अलग पदार्थ माना गया है जिसका खास सम्बंध आत्मासे है । उसको अन्ततः मूर्यरूप कहना कुछ गलत नहीं है, क्योंकि सूर्य आत्माकी शुद्ध दशाका द्योतक है । स्वयं ऋग्वेदमें उसे अमरपनेका स्वामी ( अम्रितत्वष्येशानो १०९०,३ ) कहा गया है । इस तरह प्रजापति परमेष्ठिन्के नामसे जो सिद्धान्त ऋग्वेदमें दिये गये हैं वह जैनधर्मसे सादृश्यता रखते हैं तथापि पहले बताये हुए नामके भेदको दृष्टिमें रखते हुये यह कहना कुछ अत्युक्ति पूर्ण न होगा कि इन मंत्रोंमें वेद ऋषियोंने भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित जैनधर्मका किश्चित् विवेचन किया है । इसलिये भारतमें प्रारंभसे एक प्राकृत धर्म जो उपरान्त ब्राह्मण धर्म कहलाया केवल उसका ही अस्तित्व बतलाना ठीक नहीं है । इस एवं अन्य श्रोतोंसे यह प्रमाणित है कि भारतमें जैनधर्मका अस्तित्व वेदोंसे भी पहले का है।
वेदोंके अन्य देवी देवताओं और मानताओंका अलंकृत बूंघट ‘असहमतसंगम ' आदि पुस्तकोंमें अच्छी तरह खोल दिया गया है, सो अधिक वहांसे देखना चाहिए । किंतु वेदोंके 'समय'को जो हिंदुओंने ब्रह्मरूप माना गया है वह ठीक है । जैनाचार्य कुन्दकुन्दस्वामी भी 'समय' का अर्थ 'आत्मा' ही करते हैं। इस तरह वेदकाल पर दृष्टि डालकर आइए पाठक डा० सा०के अनुसार अबशेष कालके वर्णनपर एक दृष्टि डाल लेवें; जिसमें भी अवश्य ही जैनधर्म यहां मौजूद रहा है।
१-जैन लॉ, परिशिष्ट २२४-२३५ । २-ए हिस्ट्री० पी० बुद्ध फि• पूर्व पृष्ठ २०३ । ३-समयसार पृष्ठ २ ।