________________
तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [८१ .. उपनिषद १।६) और ब्राह्मण इनके निकट 'सत् था।' इनके उप
रान्त प्रतरदनकी गणना की गई है । यह काशीके राजा दिवोदासके पुत्र थे । इन्होंने संयमी जीवन वितानेके लिए आंतरिक अग्निहोत्र (आन्तरम् अग्निहोत्रम् ) का विधान किया था। यह वैदिक यज्ञवादका एक तरहसे सुधार ही था । प्रज्ञात्मा (Cognitive Soul) के मूल प्राणको इन्होंने संसारका पोषक, सबोंका स्वामी, शरीर रहित
और अमर बतलाया था; इसलिए वह सांसारिक पुण्य-पापसे रहित था। (कोषीतकि उप० ३।९) । किसी भी व्यक्तिके किसी कार्यसे 'उसके जीवनको हानि नहीं पहुंचती है, माता, पिताके मार डालनेसे भी कुछ नहीं बिगड़ता है; न कुछ हानि चोरीसे या एक ब्राह्मणके मारनेसे होती है । यदि वह कोई पाप करता है तौभी ' चेहरेसे प्रकाश नहीं जाता है ।' (कौ० ३०३।९) इस तरह उनकी शिक्षामें जाहिरा पुण्य - पापका लोप ही था । इनके इस सिद्धांतका विशेष आन्दोलन नचिकेत, पूरणकस्सप, पकुढकाञ्चायन और भगचद्गीताके रचयिता द्वारा हुआ था।'
प्रतरदनके पश्चात् उद्दालक आरुणीके हाथोंसे ब्राह्मण मतमें एक उलटफेर ला उपस्थित की गई थी। उद्दालक अरुण ब्राह्मणका पुत्र और श्वेतकेतुका पिता था। इनका मत 'मन्थ' नामसे ज्ञात था, निसमें विवाहका करना मुख्य था। जैन रानवार्तिकमें मान्थनिकोंकी गणना क्रियावादियोंमें की गई है। श्वेतांबरियों के सूत्रकृताङ्गमें भी (१।१।१।७-९) इनके मतका उल्लेख है। इनको ज्ञानकी पिपासा उत्कट थी। इनका सैद्धान्तिक विवेचन प्रायः महीदास जैसा ही था। इन्होंने
१- पूर्व पृष्ठ १११-१२३ ! . .
:.