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८०] मगवान पार्श्वनाथ । । स्वयं ब्राह्मणोंकी उत्पत्तिके पहलेसे बराबर चला आ रहा था । यह व्याख्या अन्यथा भी प्रमाणित है, यह पुनः बतलाना वृथा है ।
इस कालका प्रारंभ महीदास ऐतरेयसे किया गया है। जो स्पष्टतः ऐतरेय दर्शनके मूल संस्थापक कहे जा सक्त हैं । छान्दोग्य . उपनिषदमें इनकी उमर ११६ वर्षकी बतलाई गई है । और यह ब्राह्मण ही थे । इनकी मांका नाम इतरा था । इसी कारण इनका दर्शन ऐतरेय कहलाया था। इनके सैद्धान्तिक विवेचनके स्पष्ट दर्शन प्रायः कहीं नहीं होते हैं । तो भो इनने लोकमें पांच द्रव्यजल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश-माने थे, इन्हींसे व्यक्तिका अस्तित्व माना गया है । सृष्टिके कार्य आदिका मूल कारण इनने परमात्माको ही माना था । (ऐतरेय आरण्यक १।३।४। ९) आत्माका संबंध परमात्मासे ही बतलाया था। एक स्थानपर वह उसे शरीरसे अलग नहीं बतलाते हैं परन्तु अन्यत्र प्राणोंकी स्वाधीनता स्वीकार करते हैं । (ऐतरेय आरण्यक, २।३। १ । १ और २। १। ८ । १२-१३) इन्होंने मनुष्यके शारीरिक अवयवोंका वर्णन खासी रीतिसे किया था और अमली जीवनके लिए विवाह और संतानका होना जरूरी समझा था । (ऐत०आर० १ । ३ । ४ । १२-१३ ) पुत्रहीन पुरुषका जीवन ही, उनकी ननरोंमें कुछ नहीं था । ( नापुत्रस्य लोको स्तिति ) इस प्रकार महीदास ऐतरेयका मत था । - इनके बाद मुख्य ब्राह्मण ऋषि गार्गायण माने गये हैं। इन्होंने कहा था कि 'जो बाह्मण है वही मैं हूं । ' (कौषीतकि
१-ए हिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्र० इन्ड० फिला० पृष्ठ ५१-९६ ।