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उस समयकी सुदशा। [३९ यह बात हमें जैनग्रन्थ 'आराधनाकथाकोष' में बताई गई है। सेठ लोग अपना व्यापारका सामान गाड़ियोंपर लादे चले जारहे थे। रास्तेमें गहन वन पड़ता था, उसीमें होकर यह लोग गुजर रहे थे कि अचानक इनपर एक डाकुओंका दल टूट पड़ा और देखते ही देखते उन्होंने इनके माल असबाबको लूट लिया । यह बेचारे ज्यों त्यों अपनी जान बचाकर वहांसे भागे । डाकुओंके हाथ खूब धन आया, धन पाकर उन सबकी नियत बिगड़ी ! सच है इस लक्ष्मीका लालच बड़ा बुरा है । भाई-भाई और पिता-पुत्रमें इसीकी बदौलत शत्रुता बढ़ती देखी जाती है। इन डाकुओंका भी यही हाल हुआ, सब परस्परमें यही चाहने लगे कि साराका सारा धन उसे ही मिले और किसीके पल्ले कुछ न पड़े। इस बदनियतको अगाड़ी रखकर वे एक दूसरेके प्राण अपहरण करनेकी कोशिष करने लगे । रातको जब वे लोग खानेको बैठे तो एकने भोजनमें विष मिला दिया; जिसके खानेसे सब मर गए ! यहां तक कि भ्रममें पड़कर वह भी मर गया जिसने कि स्वयं विष मिलाया था; किन्तु इतनेपर भी उनमें एक बच गया । यह था एक सागरदत्त नामक वैश्यपुत्र ! दुराचारके वश पड़ा हुआ यह इन डाकुओंके साथ रहता था, परन्तु इसके पहलेसे ही रातको भोजन न करनेकी प्रतिज्ञा थी; इसी कारण वह डाकुओंकी घातसे बाल बाल बच गया। सचमुच यह चंचल सम्पत्ति मनुष्यों के प्राणोंकी साक्षात दुश्मन है और धर्म परम मित्र है । डाकूलोग धनके मोहमें मरे, पर धर्म प्रतिज्ञाको निभानेवाला सेठ पुत्र बच गया ! धन और धर्मका ठीकस्वरूप यहां स्पष्ट है !
१. आराधनाकथाकोष भाग २ पृष्ठ ११२ ।