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भगवान पार्श्वनाथ । परमयोगी-साक्षात् परमात्माके निकट सब जीव मोदभावको धारण किये हुये बैठे थे । देव, मनुष्य, तिथंच सब ही वहांपर तिष्ठे भगवानके उपदेशको सुनकर अपना आत्मकल्याण कर रहे थे । भगवानके मुख्य शिष्य-प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतम एवं अन्य मुनिराज और आर्यिकाएँ भी वहां विराजमान थे। मनुष्योंके कोठेमें उस समयके प्रख्यात सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार भी बैठे हुये थे । उनके निकट उनका विद्वान् और यशस्वी पुत्र अभयकुमार बैठा हुआ था।
यही सुंदर राजकुमार विनम्र हो खड़ा होगया है-परमगुरूको नमस्कार करके दोनों करोंको जोड़े हुये निवेदन कर रहा है । वह अपने पूर्वभवोंको जाननेका इच्छुक है। दयागंभीर गणधर महारान भी इसके अनुग्रहको न टाल सके । वे भगवान महावीरकी दिव्यवाणीके अनुरूप कहने लगे कि “ इससे तीसरे भवमें तू भव्य होकर भी बुद्धिहीन था । तू किसी ब्राह्मणका पुत्र था और वेद पढ़नेके लिए अनेक देशोंमें इधर उधर घूमता फिरता था। पाखंडमूढ़ता, देवमूढ़ता, तीर्थमूढ़ता और जातिमूढ़तासे सबको विमोहित कर बहुत ही आकुलित होता था तथा उन्हींकी प्रशंसाके लिये उन्हीं कामोंको अच्छी तरह करता था । किसी एक समय वह दूसरी जगह जा रहा था । उसके मार्गमें कोई जैनी पथिक भी जा रहा था । मार्गमें पत्थरोंके ढेरके पास एक भूतोंका निवासस्थान पेड़ था । उसके समीप जाकर और उसे अपना देव समझकर बड़ी भक्तिसे उस ब्राह्मणपुत्रने उसकी प्रदक्षिणा दी और प्रणाम किया। उसकी इस चेष्टाको देखकर वह श्रावक हंसने लगा। तथा उसकी