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भगवान पार्श्वनाथ |
गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है । इसलिए मनुष्यों में गाय और घोड़े के समान जातिका किया हुआ कुछ भेद नहीं है। यदि आकृतिमें कुछ भेद हो तो जाति में भी कुछ भेद कल्पना किया जासक्ता है ॥ ४९० - ४९२ ॥ जिनकी जाति, गोत्र, कर्म आदि शुक्लध्यान के कारण हैं वे उत्तम तीन वर्ण कहलाते हैं और बाकी सब शूद्र कहलाते हैं ||४९३|| ........ . इस प्रकार के वचनों द्वारा उस श्रावकने जाति मूढ़ता भी दूर की ।" ( पं० लालारामजी द्वारा अनुवादित व प्रकाशित "उत्तरपुराण" ष्टष्ट ६२६ - ६२७ )'
इससे स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथ के समय में जाति मूढ़ता में पड़े हुये लोग ब्राह्मणपने और क्षत्रियपने आदिके नशेमें चूर थे । उनके इस मिथ्याशृद्धानको दूर करनेका प्रयत्न जैनी विद्वान किया करते थे । आजकल भी जातिमूढ़ता भारत में बढ़ी हुई है । भारतीय नीच वर्णके मनुष्यों को मनुष्य तक नहीं समझते । उनको घृणाकी दृष्टि से देखते हैं । हत्भाग्य से आजके जैनी भी इसी प्रवृत्ति में वहे जा रहे हैं । वह अपने प्राचीन पुरुषोंकी भांति भारतीयों की इस जातिमूढ़ता को मेटने में अग्रसर नहीं हैं । सचमुच प्राकृत रीति से ही
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१ - तस्य पाखण्डि मौव्यं च युक्तिभिः स निराकृतः । गोमांस भक्षणागम्यगमाद्यैः पतिते क्षणात् ॥ ४९०॥ वर्णाकृत्यादि भेदानां देहेस्मिन्नच दर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्रागर्भाधान प्रवर्त्तनात् ॥ ४९१ ॥ नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । आकृति ग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ॥ ४९२ ॥ जाति गोत्रादि कर्माणि शुध्यानस्य हेतवः ।
येषु स्यस्त्रयो वर्णः शेषाः शूद्रा प्रकीर्तिताः ॥ ४९३ ॥ इति गुणभद्राचार्यः । "