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आनन्दकुमार |
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राजा आनन्दकुमार विपुलमती मुनिराज के मुखारविन्दसे जिन पूजा के महत्वको सुनकर दृढ़ श्रद्धानी होगया और उसने उन मुनिराजसे तीनों लोकके जैन मंदिरोंका भी वर्णन सुना । वह प्रतिदिवस सर्वही स्थानोंके जिन चैत्योंको परोक्ष नमस्कार करने लगा । सूर्यदेवके विमान में भी जिनचैत्य उसे बताए गए थे, सो वह सांझ -- सबेरे छतपर चढ़कर सूर्य की ओर लक्ष्य करके वहां के जिनचैत्योंको अर्ध चढ़ाया करता था । राजाकी इस क्रियाको देखकर साधारण जनता भी वैसी ही क्रिया करने लगी । कहते हैं तबहीसे 'भानु उपासक ' लोगों का संप्रदाय उत्पन्न होगया, सूर्यदेवकी पूजा होने लगी, सूर्यमंदिर बनने लगे। इन सूर्यमंदिरोंका पता जबतब भारत के प्राचीन खण्डहरों से होजाता है । काश्मीरमें एक सुन्दर सूर्यमंदिर अब भी भग्न दशामें अवशेष है ।
इस प्रकार बड़े भावसे जिनपूजा करता हुआ राजा आनन्दकुमार राज्यप्रबंध कररहा था कि अचानक इसकी दृष्टिमें एक सफेद बाल आगया ! सफेद बालने उसे बिल्कुल सफेद ही बना दिया ! वह संसार से विरक्त होगया- अपने ज्येष्ठ पुत्रको राज्यभार सौंपकर उसने सागरदत्त मुनिराज के समीप जिनदीक्षा ग्रहण करली ! पंचमहाव्रतोंको धारण करके वह भव्य जीव विशेष रीति से बाह्याभ्यंतर तपश्चरण करने लगा । विविध प्रकारके परीषहों को समभाव से सहन करने लगा । वह राजर्षि शास्त्राभ्यास में दत्तचित्त रहते, निर्मल भावोंसे दशलक्षण धर्म और सोलहकारण भावनाओं का चितवन करते थे ! इन भवतारण सोलहकारण भावनाओंके भासे आपके त्रिलोकपूज्य तीर्थकर कर्मका बंध बंधगया ! उन्हें अनेक प्रकारकी