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भगवान पार्श्वनाथ |
ऋद्धियोंकी प्राप्ति हो गई । त्यागभाव में अपूर्व शक्ति है, मनुष्यको स्वाधीन बनानेवाला यही एक मार्ग है।
राजर्षि आनंदकुमार एक रोज क्षीर नामक वनमें वैराग्यलीन खड़े हुये थे । मेरुके समान वह अचल थे, आत्मसमाधिमें लीन वह टससे मस नहीं होते थे । इसी समय एक भयंकर केहरी उनपर आ टूटा ! अपने पंजेके एक थपेड़े में ही वह धीरवीर मुनिराजके कंठको नोच ले गया ! और फिर अन्य शरीरके अवयवोंको खाने लगा ! इस प्रचंड उपसर्गमें भी वे महागंभीर राजर्षि अविचल रहे । उन्होंने अपनी अन्तर्दृष्टि और भी गहरी चढ़ा दी । वह यह भी न जान सके कि कोई उन्हें कुछ कष्ट पहुंचा रहा है । वह दृढ़ श्रद्धानी थे कि आत्मा अजर-अमर है, शरीर उसके रहनेका एक झोंपड़ा है। मरण होनेपर भी उसका कुछ बिगड़ता नहीं इसलिए शरीर के नष्ट होने में राग-विराग करनेकी उनको जरूरत ही न थी । आजकल के सत्यान्वेषी भी इसी तत्वको पहुंच चुके हैं । प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर ओलीवर लॉजने यह स्पष्ट प्रकट कर दिया है कि मृत्युके उपरांत भी जीव रहता है । मृत्युसे भय करनेका कोई कारण नहीं, (देखो हिन्दुस्थानरिव्यू) | राजर्षि आनन्दकुमार तो उस सत्यके प्रत्यक्ष दर्शन करचुके थे ! फिर भला वह किस तरह सिंहकृत उपसर्गसे विचलित होते ! वह अपने आत्मध्यानमें निश्चल रहे और इन शुभ परिणामोंसे इस नश्वर शरीरको छोड़कर आनत नामक स्वर्ग में देवेन्द्रों से पूज्य इन्द्र हुये !
यह केहरी सिंह जिसने इतने क्रूर भावसे राजर्षिपर आक्रमण किया था, सिवाय कमटके जीवके और कोई नहीं था। नर्कके दुःख