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आनन्दकुमार। लीक पद पर राजा आनन्दकुमार आसीन थे । .. इसतरह महामंडलीक राजा आनन्दकुमार आनंदसे काल-यापन कर रहे थे कि बसंतोत्सवका समागम हुआ। रानमंत्री स्वामिहितने अपने विवेकभरे बचनोंसे राजाका मन वनक्रीड़ा करनेके स्थानपर जिनभवनमें नन्दीश्वर विधानका परम उत्सव करनेकी
ओर फेर दिया ! बड़े उत्साहसे पूजन होने लगा । राजा भी बड़े हर्षसे जिनेन्द्रभगवानकी पूजा करनेके लिये वहां पहुंचा और बड़े भक्तिभाव और शांत चित्तसे उसने भगवानकी पूना की । आकुलताका नाम नहीं-धीरनसे विधिपूर्वक पूना हुई। राजाका मनरूपी भ्रमर जिनरानके पादकमलोंमें मुग्ध रोगया । भक्तवत्सल जीव जिनेन्द्रप्रभुके समक्ष अपने द्वैतभावको भूलकर एकमेक होनाते हैं। जिनेन्द्रपूजामें स्वामी और चाकरका सम्बध नहीं है । वहां जो पूजक है सो पूज्य है, यही भाव प्रधान रहता है। न याचना हैन प्रार्थना है- निशंक हृदयसे प्रभुके आत्मीक गुणोंमें "अरे; जो वे हैं सो मैं हूँ" की ध्वनिमें लीन होजाना : यरी जैनपूजा है। - राजा भी ऐसी पूना करनेको उद्यमश'- आ था; परन्तु उसके हृदयमें संशय उठ खड़ा हुआ ! सौभाग्यसे विपुलमती नामक मुनिरान भी वहां वंदनार्थ आए थे. उनके निकट जाकर राजाने 'अपने संशयका समाधान करना चाहा । शंकाकी निवृति करना ही उत्तम है-उसको दबाना सम्यक्त्वमें बट्टा लगाना है- मच्चे श्रद्धानको मलिन करना है । स्वतंत्र विचारों द्वारा प्रत्येक विषयका स्पष्टीकरण करना श्रद्धानको निर्मल और गाढ़ बनाना है। म्वतंत्र विचारोंसे डरनेकी कोई बात नहीं-स्वाधीन रीतिसे तात्विक चर्चा करना परम