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७४. वाउ विषे ओदारिक नै रे, वैक्रिय तेजस तास ।
ए तीन आश्री पंच वर्ण छ रे, जाव लहै अठ फास ।। ७५. शेष नरक जिम जाणज्यो रे, ते इविध कहिवाय ।
फर्श च्यार कार्मण मझे रे, वर्णादि जीव में नाय ।। ७६. पंचेंद्रिय तिरखजोणिया रे, वाउकाय जिम जाण ।
मनुष्य तणी पूछा कियां रे, उत्तर दे जगभाण ।।
७४. वाउक्काइया ओरालिय-वे उब्विय-तेयगाई पडुच्च
पंचवण्णा जाव अट्रफासा पण्णत्ता। ७५. सेसं जहा नेरइयाणं ।
७७. धुर चिउं तनु आश्री कह्या रे, पंच वर्ण जाव अठ फास । ___ च्यार फर्श कार्मण मझे रे, जीव अरूपी तास ।।
७६. पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा बाउक्काइया ।
(श. १२।११५) मणुस्साणं-पुच्छा। ७७. ओरालिय-वेउम्विय-आहारग-तेयगाई पडुच्च पंच
वण्णा जाव अट्रफासा पण्णत्ता। कम्मगं जीवं च
पडुच्च जहा नेरइयाणं ७८. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया ।
७५. व्यंतर नै वलि जोतिषी रे, वैमानिक वलि जोय ।
कहिवं नारक नीं परै रे, सह विरतंतज सोय ।। ७६. शत बारम देश पंचम तणो रे, बेसौ साठमी ढाल ।
भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश'मंगलमाल ।।
ढाल : २६१
धर्मास्तिकाय आदि में वर्णादिक की पृच्छा
१. धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए –एए सव्वे अवण्णा ।
दूहा १. वलि धर्मास्तीकाय में, जाव पोग्गल-परिवत्त' । ए सगला में वर्ण नहिं, जाव फर्श नहि तत्थ ।।
सोरठा २. जाव शब्द थी ताय, अधर्मास्ति आगासस्थि ।
वलि पुद्गलास्तिकाय, अद्धा समयो आवलिका ।। ३. मुहूर्त इत्यादेह, परावर्त्त-पुद्गल लगे। अमूर्तपणेज एह, वर्णादिक यांमें नथी॥
२,३. इह यावत्करणादेवं दृश्यम् -'अधम्मत्थिकाए
आगासत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए आवलिया मुहुत्ते' इत्यादि।
(वृ. प. ५७४)
४. णवरं इतो विशेष छ, पुदगलास्ति में तास । पंच वर्ण बे गंध छ, पंच रस अठ फास ।।
४. नवरं--पोग्गलत्थिकाए पंचवणे, दुगंधे, पंचरसे,
अट्ठफासे पण्णत्ते।
१. अंगसुत्ताणि (भाग २) में 'धम्मस्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए' पाठ है। वृत्तिकार ने जाव की पूर्ति में पोग्गलत्थिकाए के बाद 'अद्धासमए आवलिया मुहत्ते इत्यादि' लिखा है । इत्यादि शब्द सूचना देता है कि कुछ शब्द और हैं । जयाचार्य ने इसी शब्द के आधार पर काल के अन्तिम भेद 'पोग्गल-परिवत्त' तक का ग्रहण कर लिया।
श० १२, उ०५, ढा०२६०,२६१ ६३
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