Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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४३. लेणजभगा, सयण भगा, पुप्फजंभगा, फलजंभगा,
'लेणं' ति लयनं-गृहम् । (वृ०प०६५४)
४३. लेणāभका ते घर नैं सरस अरु,
निरस प्रमुख इम गहीजिये । सयणमुंभका फूल नां जुंभक,
फल नां जंभक लीजिये ।। ४४. फूल फल एह उभय नां जंभका, पूर्व रीत वदीजिये।
पुफ्फ फल स्थाने मंतज़ंभगा, वाचनांतरे कहीजिये ।।
४४. पुष्फ-फल-जंभगा।
'पुप्फफलजंभग' त्ति उभयज़म्भकाः एतस्य च स्थाने 'मंतजंभग' त्ति वाचनान्तरे दृश्यते ।
(वृ०प०६५४) ४५. विज्जाजंभगा, अवियत्तिजंभगा। (श०१४।११९)
४५. विद्याज़ंभक ते पर विद्या, ऊणी अधिक करीजिये ।
नाटकप्रमुख बिगाड़े सुधार, ते अव्यक्तāभगा लीजिये।
सोरठा ४६. किणही स्थान संवाद, दीसै अहिवइ-जंभका।
ते अधिपति राजादि, नायक विषये जूभका ।।
४७. *हे भगवंत जी! जंभक देवा, ते किण स्थान वसीजिये ?
श्री जिन भाखै दीर्घ वैताढज, सर्व विषेज रहीजिये । ४८. चित्र विचित्र जंभक गिर ऊपर,
कंचनगिरि वलि लीजिये। एह विषे वसै जंभक देवा, हिव विस्तार कहीजिये ।।
४६. क्वचित्तु 'अहिवइजंभग' त्ति दृश्यते तत्र चाधिपतीराजादिनायकविषये जृम्भका ये ते तथा ।
(वृ० ५० ६५४) ४७. जंभगा णं भंते ! देवा कहि वसहि उवेंति ?
गोयमा ! सव्वेसु चेव दोहवेयड्ढेसु । ४८. चित्त-विचित्त-जमगपव्वएसु, कंचणपव्वएसु य, एत्थ
णं जंभगा देवा वसहि उवेति । (श०१४।१२०)
सोरठा ४६. दीर्घ वैताढ उदार, इकसौ नैं सित्तर विषे । ___ जंभक वास विचार, कर्मभूमि ए पनर में ।।
४९. 'सव्वेसु चेव दीहवेयड्ढेसु' त्ति सर्वेषु प्रतिक्षेत्रं तेषां भावात् सप्तत्यधिकशतसंख्येषु ।।
(वृ० प० ६५४)
५०. पंच विदेह संपेख, विजय एकसौ साठ में ।
पंच भरत में देख, पंच एरवत नैं विषे ।। ५१. चित्र विचित्र विचार, वलि यमक वैताढ वृत्त।
ए कुण क्षेत्र मझार, निर्णय कहिये तेहनों। ५२. देवकुरू रै मांय, सीतोदाज नदी तणें ।
उभय पास कहिवाय, चित्र विचित्र वैताढ वृत्त ।। ५३. तथा उत्तरकुरु जान, उभय पास सीता तणें ।
यमक नामज मान, ते बिहं पर्वत ने विषे ॥ ५४. कंचनगिरि पर जाण, उत्तरकूरु सीता नदी।
तास संबंधे माण, नीलवंतादिक पंच द्रह ।।
५२. देवकुरुषुष शीतोदानद्या उभयपार्वतश्चित्रकूटो
विचित्रकूटश्च पर्वतः। (वृ०प० ६५४) ५३. तथोत्तरकुरुषु शीताभिधान नद्या उभयतो यमक
समकाभिधानौ पर्वतौ स्तस्तेषु । (वृ० प० ६५४,५५) ५४. 'कंचणपब्बएसु' ति उत्तरकुरुषु शीतानदीसम्बन्धिनां पञ्चानां नीलवदादिह्रदानां क्रमव्यवस्थितानां ।
(वृ०प०६५५) ५५. प्रत्येक पूर्वापरतटयोर्दश दश काञ्चनाभिधाना गिरयः
सन्ति ते च शतं भवन्ति । (वृ०प०६५५) ५६. एवं देवकुरुष्वपि शीतोदानद्याः सम्बन्धिनां निषदह्रदादीनां पञ्चानां महाहदानामिति ।
(व० प० ६५५)
५५. तेहनें पूरव जन्न, वलि पश्चिम दिशि नै विषे।
दश-दश गिरि कंचन्न, उत्तरकुरु इम सौ थया ।। ५६. देवकुरु रै मांय, नाम सीतोदा महानदी।
तास संबंध कहाय, निषद द्रहादिक पंच है। ५७. तेहनै पूर्वे जन्न, वलि पश्चिम दिशि नै विषे ।
दश-दश गिरि कंचन्न, देवकुरू इम सौ थया । *लय : बलिहारी भोखणजी स्वाम को
२८६ भगवती जोड़
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