Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 332
________________ १६७. श्री लक्ष्मी शोभा करो, अतीत अतीव धार । उपशोभमान छतो जिहां, तिष्ठे-रहै तिवार । १६८. मंखलिसुत गोशाल तब, ते तिल-बूटो देख। देखी नै जे मुझ प्रतै, वंदै नमै विशेख ।। १९६. वंदी शिर नामी करी, मुझ प्रति बोल्यो वाय । हे भगवंत ! तिल-थंभ ए, स्यं नोपजस्य ताय ? २००. किं वा नीपजस्यै नहीं? एह सप्त अवलोय । तिल पुप्फ तेहनां जीव जे, मरी-मरी नै सोय ॥ २०१. जास्य उपजस्यै किहां, तब हूं गोयम ! तेह। मंखलिसुत गोशाल प्रति, इहविध वयण वदेह ।। २०२. गोशाला ! तिल-थंभ ए, सही निपजस्य जाण । नहीं निपजस्यै इम नहीं, प्रगटपणे पहिछाण ।। २०३. एह सप्त तिल पुष्प नां, जीवा मरि-मरि ताहि । एहिज तिल थंभ नै विषे, इक तिल-संगलो' मांहि ।। २०४. ऊपजस्यै सप्त तिलपण, तिण अवसर रै माय। मंखलिसुत गोशाल ते, मुझ इम कहित वाय ।। नहा । १९.. सरीए अतीव अतीव उसोभेमाणे-उवसोभेणेम चिट्ठइ। (श० १५।५७) १९८. तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते तं तिलथंभंग पास इ, पासित्ता मम वंदइ नमसइ १९९. वदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एस णं भते ! तिलथंभए कि निप्फज्जिस्सइ? :००. नो निप्फज्जिस्सइ ? एए य सत्ततिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता २०१. कहिं गच्छिहिति ? कहिं उबवजिहिति ? तए णं ____ अहं गोयमा ! गोसाल मखलिपुन एव वयासी२०२. गोसाला ! एस णं तेलयंभए निप्फज्जिस्सइ, नो न निप्फज्जिस्सइ। २०३. एते य सत्ततिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्द। इत्ता एयस्स चेव तिलथंभस्स एगाए तिलसंगलियाए २०४. सत्त तिला पच्चायाइस्सति । (श १५४५८) तए णं से गोसाले मखंलिपुत्ते मम एवं आइक्ख माणस्स २०५. एयमठें नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, एयट्ठ असद्दहमाणे, २०६. अपत्तियमाणे, अरोएमाणे, ममं पणिहाए अयं ण मिच्छावादी भवउ 'ममं पणिहाए' त्ति मां प्रणिधाय-मामाश्रित्याय मिथ्यावादी भवत्विति विकल्पं (वृ०प०६६५) २०७. त्ति कटु मम अंतियाओ सणिय-सणियं पच्चो सक्कइ २०८. पच्चोसक्कित्ता जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं तिलथंभंग २०९. सलेढुयायं चेव उप्पाडेइ, उप्पाडेता एगते एडेइ । २०५. एह अर्थ सरध्या नहीं, प्रतोत आंणी नांहि । रोचविया नहीं ए अरथ, अणश्रद्धंतो ताहि ॥ २०६. प्रतीत अणकरतो थको, अणरोचवतो जेह । मुझ आश्रयी वच एहनुं झूठो थावो एह ।। २०७. इम मन चितवणा करी, मुझ पासा थो ताम । हलवै-हलवै प्रच्छन्न ही, पाछो ऊसरै आम ॥ २०८. हलवै पाछो ऊपरी, जिहां तिल-बंटो जेह । तिहां आवै आवी करी, ते तिल-थंभ प्रतेह ।। २०६. समूल माटी सहित हो, तुरत उपाइँ आय । तुरत उपाड़ी मैं तदा, एकत न्हाखै ताय ।। २१०. ते एकांत न्हाखी करी, तिणहिज क्षेत्र विषेह । तिणहिज वेला गोयमा ! थयं तिको निसुणेह ।। २११. दिव्य उदक नों बादलो, प्रगट थयो जे मेह। तब ते जल-बादल अतिहि, शीबहीज गाजेह ।। २१०. तक्खणमेत्तं च णं गोयमा ! २११. दिव्वे अब्भवद्दलए पाउब्भूए । तए णं से दिव्वे अब्भवद्दलए खिप्पामेव पतणतणाति, 'पतणतणायइ' त्ति प्रकर्षेण तणतणायते गर्जतीत्यर्थः । (वृ० ५० ६६५) २१२. खिप्पामेव पविज्जुयाति, २१२. शीघ्रहीज अति गाज नै, शीघ्रहीज अधिकाय । चमकै विज्जु सौदामिनी, ते चमकी में ताय ।। २१३. शीघ्रहीज नहि अति उदक, नहिं अति कर्दम होय । स्तोक-स्तोक जल बिदुआ, विरली छांटां सोय ।। २१३. खिप्पामेव नच्चोदगं णातिमट्टियं पविरलपफुसियं 'नच्चोदगं' ति नात्युदकं यथा भवति 'नाइमट्टियं' ति नातिकमं यथा भवतीत्यर्थः 'पविरलपप्फुसियं' ति प्रविरलाः प्रस्पृशिका-विग्रुषो यत्र तत्तथा । (व० प० ६६५) १. तिल की फली ३१४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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