Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१७०. दाढी मूंछ सहीत ही, नापित पासे तेह ।
मुंड करावै तिह समय, मुंडन करावी जेह ।।
१७१. तंतुवाय-शाला थकी, निकले निकलो जेह ।
नालंदा पाड़ा तणे, थई मध्य मध्येह ।। १७२. निकले निकली - जिहां, कोल्लाग एहवै नाम ।
सन्निवेस अछै तिहां, आवै आवी साम ।। १७३. तिण अवसर कोल्लाग ते, सन्निवेस रे बार।
बह जन इम कहै परस्पर, जाव परूपै धार ।। १७४. धन्य छ हे देवानुप्रिय ! ब्राह्मण बहुल उदार ।
तिमज जाव जीवित सुफल, बहुल विप्र नै सार ।।
गोशालक का शिष्य रूप स्वीकरण पद १७५. बार-बार जन इम वदै, तिण अवसर रै मांहि ।
मंखलिसुत गोशाल ते, बहु जन समीप ताहि ॥ १७६. एह अर्थ निसुणी करी, धारी हृदय मझार ।
ए एहवे रूपे तदा, आत्म विषे अवधार ।। १७७.जावत संकल्प ऊपनों, जेहवी जे सलहीज ।
मांहरा धर्माचार्य नी, धर्मोपदेशक नीज।। १७८. श्रमण भगवंत महावीर नी, द्युति कांति सुपरम्म ।
जश बल वीर्य छै वली, पुरिसकार परक्कम्म ।। १७६. लब्ध प्राप्त सन्मुख थयो, नहि छ तेहवी सार ।
अन्य किणही तथारूप जे, श्रमण ब्राह्मण नी धार ।
१७०. सउत्तरोठं भंड' कारेइ, कारेत्ता
'सउत्तरोट्ठ' ति सह उत्तरोष्ठेन सोत्तरौष्ठं-सश्मश्रुकं यथा भवतीत्येवं 'मुंड' ति मुण्डनं कारयति नापितेन ।
(वृ० प० ६६४) १७१. तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता
नालंदं बाहिरियं मझमझेण १७२. निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोल्लाए सण्णिवेसे तेणेव उवागच्छइ।
(श० १५/५१) १७३. तए णं तस्स कोल्लागस्स सण्णिवेसस्स बहिया
बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्ख इ जाव परूवेइ । १७४. धन्ने णं देवाणुप्पिया ! बहुले माहणे, तं चेव जाव
(सं० पा०) जीवियफले बहुलस्स माहणस्स, बहुलस्स माहणस्स।
(श. १५/५२) १७५ तए णं तस्स गोसालस्स मखलिपुत्तस्स बहुजणस्स
अंतियं १७६. एयमट्ठ सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए
१७७. जाव (सं० पा०) समुप्पज्जित्था जारिसिया णं मम
धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स १७८. समणस्स भगवओ महावीरस्स इड्ढी जुती जसे बले
वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे १७९. लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए नो खलु अस्थि तारिसिया
अण्णस्स कस्सइ तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स
वा
१८०. इड्ढी जुती जाव (सं० पा०) परक्कमे लद्धे पत्ते
अभिसमण्णागए. १८१. तं निस्संदिद्धं णं एत्थ ममं धम्मायरिए धम्मोव
देसए १८२. समणे भगवं महावीरे भविस्सतीति कटु कोल्लाए
सण्णिवेसे सब्भित रबाहिरिए १८३. ममं सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ।
१८०. ऋद्धि द्युति जावत परक्कमे, लाधै पामै ताहि ।
वलि तेह सन्मुख थयु, अन्य तणु ए नांहि ।। १८१.ते माटै संशय रहित, इह स्थानक अवलोय ।
धर्माचारज मांहरा, धर्मोपदेशक सोय ॥ १८२. श्रमण भगवंत महावीर जी, हुस्यै एम अवधार ।
सन्निवेस कोल्लाग रै, भ्यंतर सहितज बार ॥ १८३. मुझ प्रति सहु दिशि विदिश में, सर्व प्रकार करेह ।
मार्गण-गवेषणा तदा, करै अधिक धर नेह ।। १८४. मुझ प्रति सर्व थकी तदा, सर्व प्रकार करेह ।
मार्गण अनैं गवेषणा, करतो छतोज तेह । १८५. कोल्लाग सन्निवेस रै, बाहिर महि रमणीक ।
मुझ संघात सन्मुख थयो, आय मिल्यो तहतीक ।। १८६. तिण अवसर गोशाल ते, मंखलिसुत अवधार।
हरष संतोष लडं छतुं, जे मुझ प्रति त्रिण वार || १८७. आ दाहिण पासा थकी, प्रदक्षिणा प्रति देय।
जावत ही नमस्कार करि, इहविध वयण कहेय ॥
१८४. ममं सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणे
१८५. कोल्लागस्स सण्णिवेसस्स बहिया पणियभूमीए मए
सद्धि अभिसमण्णागए। (श० १५/५३) १८६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हट्ठतुठे मम
तिक्खुत्तो १८७. आयाहिण-पयाहिणं जाव (सं० पा०) नमंसित्ता
एवं वयासी१. 'भंड' धातु का प्रयोग क्षुर-मुंडन के अर्थ में हुआ है।
पाठान्तर में 'मुंडं' शब्द लिया गया है।
३१२ भगवती जोड़
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