Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१४२. आणंद गाथापति तणें, घर पेठो सुविशेख ।
तब आणद गाथापति, मुज प्रति आवत देख ।।
१४२. आणंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्पविढे ।
(श० १५१३१) तए णं से आणंदे गाहावई ममं एज्जमाणं पासइ। १४३. एवं जहेव विजयस्स नवरं
१४४. ममं विउलाए खज्जगविहीए पडिलाभेस्सामित्ति तुट्ठः
'खज्जगविहीए' त्ति खण्डखाद्यादिलक्षणभोजनप्रकारेण
(वृ० प० ६६४)
१४३. इम जिम आख्य विजय न, तिम कहिव अधिकार ।
णवरं इतो विशेष ते, आहार विष अवधार ।। १४४. मुझ प्रति विस्तीरण घणो, खंड खाजादिक आहार ।
प्रतिलाभिस इम चितवी, हरष्यो हिया मझार ।।
तृतीय मासखमण पद १४५. शेष तिमज कहिवो सह, जावत तीजो मास ।
अंगीकार करिनैं तदा, विचरूं ध्यान विलास ।।
वा०—जिम पहिला मासखमण के पारणे गोशाले कह्यो-थे म्हारा धर्माचार्य, हूं थारो धर्मातेवासी शिष्य, ते इहां पिण जाव शब्द में पाठ कहिवो। तिवार भगवान गोशाला का वचन नै आदर दियो नहीं, मन में भलो जाण्यो नहीं, मूंन राखी । दीक्षा देवा री रीत नहीं, तिणसूं अंगीकार न कियो। १४६. तिण अवसर हूँ गोयमा ! तृतीय मास में जोय ।
पारण वणकर-शाल थी, निकल्यं निकली सोय ॥
१४५. सेसं तं चेव जाव (सं० पा०) तच्च मासखमणं
उवसंपज्जित्ताणं विहरामि । (श० १५॥३२-३७)
१४६. तए णं अहं गोयमा ! तच्चमासखमणपारणगंसि
तन्तुबायसालाओ पडिनिक्खमामि, पडिनिक्ख
मित्ता १४७. तहेव जाव (सं० पा०) अडमाणे सुणंदस्स गाहाव
इस्स गिहं अणुपविठे। (श० १५॥३८) १४८ तए णं से सुणंदे गाहावई एवं जहेव विजयगाहावई
१४७. तिमज जाव फिरतां थका, गाथापती सुनंद ।
तेह तणां घर मैं विष, कियो प्रवेश अमंद ।। १४८. गाथापती सुनंद तब, इम जिम विजय आख्यात ।
णवरं इतो विशेष ते, आहार विषे अवदात ।। १४६. मुझ प्रति ते तब सर्वही, रसमय भोजन सार ।
वर अभिलाषित रस करी, निपर्नु छै जे आर ।।
नवरं
१४९. सव्वकामगुणिएणं
'सव्वकामगुणिएणं' ति सर्वे कामगुणा-अभिलाषविषयभूता रसादयः सञ्जाता यत्र तत्सर्वकामगुणितं तेन ।
(वृ०प० ६६४)
चतुर्थ मासखमण पद १५०. आहार इसो प्रतिलाभियो, शेष तिमज सह न्हाल ।
तूर्य मास अंगीकरी, विचरच वणकर-शाल ।।
१५०. भोयणेणं पडिलाभेइ।
सेसं तं चेव जाव (सं० पा०) चउत्थं मासखमणं उवसंपज्जित्ताणं बिहरामि । (श०१५।३९-४४)
बा-अवशेष तिमहिज कहिवं, इण वचने करी इहां पिण गोशाल कह्योआप म्हारा धर्माचार्य, हूं आपरो धर्मातेवासी शिष्य। तब भगवान गोशाला रा वचन नै आदर न दियो, मन में पिण भलो न जाण्यो। मून धारी रह्या । इहां ए अभिप्राय-जे छद्मस्थपणे दीक्षा देवा री रीत नहीं, ते माटै अंगीकार न कियो। १५१. ते नालंदा पाड़ में, दूर निकट बहु नांहि ।
इहां कोल्लागज नाम ही, सन्निवेस थो ताहि ।। १५२. तेहनों वर्णक जाणवो, कोल्लाग सन्निवेस ।
ब्राह्मण बहल वसै तिहां, ते ऋद्धवंत विशेष ।। १५३. जावत अपरिभूत छै, प्रथम वेद ऋग जाव ।
ब्राह्मण संबंधि शास्त्र में, सुपरिनिष्ठित भाव ।।
१५१. तीसे णं नालंदाए बाहिरियाए अदूरसामंते, एत्थ ___णं कोल्लाए नाम सण्णिवेसे होत्था । १५२. सण्णिवेसवण्णओ। तत्थ णं कोल्लाए सण्णिवेसे
बहुले नामं माहणे परिवसइ-अड्ढे १५३. जाव बहुजणस्स अपरिभूए, रिउव्वेय जाव बंभण्णएसु परिव्वायएसु य नयेसु सुपरिनिट्ठिए यावि होत्था।
(श० १५/४५) १५४. तए णं से बहुले माहणे कत्तियचाउम्मासिय
पाडिवगंसि
१५४. बहल ब्राह्मण तिण अवसरे, कात्तिक मास तणीज ।
च उमासी छै तेहनी, पडिवा विषे कहीज ।।
३१० भगवती जोड़
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