Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 363
________________ ६३२. पित्त ज्वर करि परिगत तनु, दाह ज्वर आक्रमेह । ___ तूं छद्मस्थ थको सही, पामिस मरण प्रतेह ।। ६३३. श्रमण भगवंत महावीर तब, कहै गोशाल प्रतेह । हूं गोशाला ! तोहरे, तप तेजे व्यापेह ।। ६३२. पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि । (श० १५५११३) ६३३. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-नो खलु अहं गोसाला! तव तवेणं तेएणं अण्णाइट्ठे समाणे ६३४. अंतो छण्हं जाव (सं० पा०) कालं करेस्सामि । . ६३४. षट मसवाड़ा अंत जे, जाव करूं नहि काल । निश्चै करि ए जाणवू, इम कहै परम दयाल ।। ६३५. हं अन्य सोलै वर्ष लग, जिन जीत्या रागादि । सुहस्ती जिम विचरसं, गंध गज जेम संवादि ।। ६३५. अहण्णं अण्णाई सोलस वासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि । 'सुहत्थि' त्ति सुहस्तीव सुहस्ती। (व०प०६८३) ६३६. तुम णं गोसाला! अप्पणा चेव सएणं तेएणं अण्णाइट्ठे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स ६३७. पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि । (श० १५३११४) ६३८. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव (सं०पा०) पहेसु ६३९. बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्ख इ जाव एवं परूवेइ६४०. एवं खलु देवाणुप्पिया ! सावत्थीए नगरीए बहिया कोट्ठए चेइए दुवे जिणा संलवंति६४१. एगे वदंति तुमं पुचि कालं करेस्ससि, एगे वदंति तुमं पुब्वि कालं करेस्ससि । ६४२. तत्थ णं के पुण सम्मावादी ? के मिच्छावादी? ६३६. गोशाला ! पोतैज फुन, तं निज तेज करेह । व्याप्यं पराभव्यु छतुं, सप्त रात्रि अंतेह ।। ६३७. पित्त ज्वर करि परिगत तनु, दाह आक्रमे न्हाल । जे छद्मस्थ थकोज तूं, निश्चै करसी काल ।। श्रावस्ती में जनप्रवाद पद ६३८. तिण अवसर जे सावत्थी, नगरी विषेज ताहि । Qघाटक आकार जे, जाव महापथ मांहि ।। ६३६. बहु जन मांहोमांहि जे, इक-इक मैं कहै एम । जाव परूपै इह-विधे, ते सूणजो धर प्रेम ।। ६४०. इम निश्चै देवानुप्रिय ! नगर सावत्थी बार । कोट्ठग बागे उभय जिन, इम कहै बारंबार ।। ६४१. इक कहै तूं मरसी प्रथम, बली कहै इक वाय । काल करेसी तूं प्रथम, इम कहै माहोमांय ।। ६४२. इह बिहुँ जिन छै ते विषे, कुण सत्यवादी होय । मिथ्यावादी कवण जे. झूठाबोलो जोय ? ६४३. तत्र यथा सुप्रधान जन, जे मुख्य जन कहै वाय । श्रमण भगवंत महावीर जी, सत्यवादी सुखदाय ।। ६४४. मंखलिसुत गोशाल ते, मिथ्यावादी जाण । झूठाबोलो प्रत्यक्ष ही, ए उत्तम जन वाण ।। गोशालक के साथ श्रमणों के प्रश्नोत्तर पद ६४५. हे आर्यो ! इहविध कही, श्रमण भगवंत महावीर । श्रमण निग्रंथ आमंत्रि में, एम वदै गुण हीर । ६४६. आर्यो ! यथादृष्टांत ते, तृणपुंज ते तृणराश । अथवा काष्ठ तणूंज पुंज, फुन पत्रपुंज विमास ।। ६४७. अथवा छाल तणूंज पुंज, अथवा तुस-पुंज होय । अथवा भुस नों पुंज जे, वा गोमयपूज जोय ।। ६४८. कचरा तणीज राशि फुन, ए सह पुंज प्रतेह । बाल्यु अग्नि करी बली, सेव्यु अग्नि करेह ।। ६४६. अग्नि करीने परिणम्य, पूर्व स्वभाव त्यजेह । तेज हणाणो तेह नों, धूल प्रमुख करि तेह ।। ६४३. तत्थ णं जे से अहप्पहाणे जणे से वदति-समणे भगवं महावीरे सम्मावादी, ६४४. गोसाले मंखलिपुत्ते मिच्छावादी । (श० १५।११५) ६४५. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे समणे निग्गथे आमंतेत्ता एवं वयासी६४६. अज्जो ! से जहानामए तणरासी इ वा कट्टरासी इ वा पत्तरासी इ वा ६४७. तयारासी इ वा तुसरासी इ वा भुसरासी इ वा गोमयरासी इ वा। ६४८. अवकररासी इ वा अगणिझामिए अगणिझूसिए 'अगणिझामिए'त्ति अग्निना ध्मातो-दग्धो 'अगणि झूसिए' त्ति अग्निना सेवितः। (वृ० प०६८३) ६४९. अगणिपरिणामिए हयतेए अगणिपरिणामिए' त्ति अग्निना परिणामितः पूर्वस्वभावत्याजनेनात्मभावं नीतः ततश्च हततेजा धूल्यादिना। (वृ०प०६८३,६८४) भ० श०१५ ३४५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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