Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 365
________________ ६६९. जाय मिसिमिसेमान ययुं तनु ने कांई पिण तदा, ६७०. अथवा बहु बाधा प्रतै, वा तनुच्छेदज करण नें, गोशालक संघमेव पद श्रमण निर्बंध नां सोय । थोड़ी बाधा जोय ॥ उपजावा नैं धार । समरथ नहीं लिगार ॥ ६७१. तब आजीविक नां स्थविर, जे गोशाल प्रतेह श्रमण निर्ग्रथे धर्ममय, पड़िचोयणा करेह ॥ वा०-हिवे आजीविक नां स्थविर श्रमण निग्रंथे गोशाला ने प्रश्न पूछयां तेहनां जाब न आया, एहवो देख्यो ते कहै छै - ६७२. पचिण करतां वां वली धर्ममय जाण । 1 प्रतिसारणा विणे करी ६७३. धर्म प्रति उपकार करि अर्थ करी अथवा बसी ६७४. जावत प्रश्न तथा जिके, प्रतिसारतां पिछाण ।। करता प्रत्युपकार। हेतु करोतिवार ।। उत्तर रहित जिवार एहवो गोशालक भणी, देख लियो तिहार ।। वा० - वली आजीविया नां स्थविर गोशाला नैं कोप चढ्यो देख्यो, पिण श्रमण निग्रंथ नैं दुख अणउपजावतो देख्यो, ते कहै छै - ६७५. आसुरुते गोशाल जे, जाव मिसिमिसेमान । वली श्रमण निग्रंथ नां शरीर में पहिचान || ६७६. थोड़ी वा बाधा घणी, वा तनुच्छेद प्रतेह | अणकरतो गोणाल ने देखे देखी जेह ॥ -- वा०-हिवे आजीविया नो स्थविर गोशाला ने छोड़ने भगवान ने अंगीकार किया, ते क ६७७. मंखलिसुत गोशाल नां, समीप थी अवधार । के स्थविर आत्मा करी धायें दूर तिवार ।। ६७. तेही दूर पई जिहां, श्रमण भगवंत महावीर तिहा आवे आदी करी, भगवंत प्रत सुधीर ॥ ६७६. तीन वार दक्षिण तणां, पासा थी गुणगेह । प्रदक्षिणा देई करी, वंदे शिर नामेह ॥ ६८०. बंदी शिर नामी करी, श्रमण भगवंत महावीर । विचरं गुणमणि हीर ॥ गोशालाज प्रतेह | अंगीकार करनें तदा, विचरै मतपक्षेह || गोशालक प्रतिगमन पर तेह प्रतं अंगीकरी ६०१ को आजीविक ना स्थविर, ६८२. मंखलिसुत गोशाल तब, जे प्रभु हणवा अर्थ | उतावतो आथ्यो हतो, असाधतोज तदर्थ | ६८३. लांबी दृष्टे दश दिशे, देखतो तिहवार । लांबा उष्ण निसास फुन म्हातोज विचार ॥ Jain Education International ६६९. जाब (सं० पा० ) वितिमिमानो संचाएति समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आबाहं वा ६७०. वाबाहं वा उप्पाएत्तए, छविच्छेदं वा करेत्तए । (२०१५।११८) ६७१ तर ते आजीविया मेरा गोसाल मंसि समणेहि निषेधिमिया पडिपोषणाए ६७२. पडिचोएज्जमाणं, पडिसा रिज्जमाणं, धम्मियाए पडिसारणाए ६७३. धम्मिएणं पडोयारेणं य पडोयारेज्जमाणं, अट्ठेहि य ऊहि य ६७४. जाव (सं० पा० ) य निष्पट्ट्पणियागरण कीरमाणं ७७५. आसुरुतं जाव (सं० पा० ) मिसिमिसेमाणं समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स ६७६. किंचि आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकरेमाणं पासंति, पासित्ता ६७७ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ मायाए अवक्कमंति ६७८. अवक्कमित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उपागच्छति उपागच्छता सम भगवं महावीरं ६७९. तो आपाहि पाहि करेति, करेता बंदति नमसंति, ६८०. वंदित्ता नमसित्ता समणं भगवं महावीरं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । ६८१. अत्थेगतिया आजीविया थेरा गोसालं चेव मंखलिपुत्तं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । ( श० १५।११९ ) ६८२. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्सद्वाए हव्वमागए तमट्ठे असाहेमाणे, ६०३. रुंदाई पलोएमाणे दीडव्हाईनीसमाणे । 'दाई पलोमा' ति दीर्घा दृष्टीदि प्रतिपन्नत्यर्थः : । (बु०प०६०४) For Private & Personal Use Only भ० श० १५ ३४७ www.jainelibrary.org

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