Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 356
________________ ५११. से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई जाव चइत्ता पंचमे सण्णिगब्भे जीवे पच्चायाति । ५१२. से णं तओहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता हिट्ठिल्ले माणु सुत्तरे संजूहे देवे उववज्जइ । ५१३. से णं तत्थ दिव्वाइं भोगमोगाई जाव चइत्ता छठे सण्णिगब्भे जीवे पच्चायाति । ५१४. से णं तओहितो अणंतरं उम्बट्टित्ता-बंभलोगे नाम से कप्पे पण्णत्ते । ५१५. पाईणपडीणायते उदीणदाहिणविच्छिण्णे । ५११. ते तिहां देव संबंधिया, जाव चवी ने जाण । पंचम सन्नि गर्भ मनु विषे, जीव ऊपजै आण ॥ ५१२. तेह जीव ते भव थकी, निकली अणंतरेह । हेठिल महामाणस संयूथ, देवपणे उपजेह ।। ५१३. ते तिहां देव संबंधिया, जाव चवी ने जाण । छठा सन्नि गर्भ मनु विषे, जीव ऊपजै आण ।। ५१४. तेह जीव ते भव थकी, निकली अणंतरेह । ब्रह्मलोक' नामे इसो, कल्प परूप्यो तेह ।। ५१५. लांबपणे पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण जोग । विस्तीर्ण चोड़ापणे, ते पंचम सुरलोग ।। ५१६. सूत्र पन्नवणा दूसरे, ठाण पदे जिम ख्यात । जाव पंचम अवतंसका, आख्या तेह कहात ।। ५१७. अशोक अवतंसक प्रथम, यावत ही प्रतिरूप । ते तिहां सुर में ऊपज, पामै सुख अनूप ।। ५१८. ते तिहां दश दधि देव नां, जाव चवी – जाण । ___ सप्तम सन्नि गर्भ मनु विषे, जीव ऊपजै आण ।। ५१९. तेह तिहां नव मास लग, बहु प्रतिपूरण लेह । साढा सातज रात्रि दिन, ए अतिक्रम्ये छतेह ।। ५२०. तनु सुकुमालज जेहनों, भद्रक मूर्ती जास । मृदु दर्भ कुंडल नीं पर, कुंचित केश विमास ।। ५२१. मृष्ट गंड-तल ने विषे, कर्णाभरण विशेख । देवकुमारज सारिखी, छै तनु प्रभा सुरेख ।। ५२२. जन्म्या बालक एहवो, रे काश्यप ! सुण बात। हूं इज ते बालक हुँतो, आगल सुण अवदात ।। ५२३. तिवार पछै हे आयुष्मन ! अहो कासवा ! जाण । म्है बालपण दीक्षा ग्रही, कुमार वय पहिछाण ।। ५२४. फुन कुमार वय नै विषे, ब्रह्मचर्य वसिवेह । कान बिंधाया पिण नथी, कुश्रुति-शिलाक करेह ।। ५१६ जहा ठाणपदे (२।५४) जाव पंच वडेंसगा पण्णत्ता, तं जहा५१७. असोगव.सए जाव पडिरूवा-से णं तत्थ देवे उववज्जइ । ५१८. से णं तत्थ दस सागरोवमाई दिब्वाई भोगभोगाई जाव चइत्ता सत्तमे सण्णिगन्भे जीवे पच्चायाति । ५१९. से गं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं वीतिक्कंताणं ५२०. सुकुमालगभद्दलए मिउ-कुंडल कुंचिय-केसए ५२१. मट्ठगंडतल-कण्णपीढए देवकुमारसप्पभए ५२२. दारए पयाति । से णं अहं कासवा ! ५२५. कुश्रुति विण सुण्ये बाल वय, प्रव्रज्या विष पिछाण । संखा कहितां बुद्धि ते, म्है लाधी सुविहाण ।। ५२३. तए णं अहं आउसो कासवा ! कोमारियपव्य ज्जाए ५२४. कोमारएणं बंभचेरवासेणं अविद्धकण्णए 'अविद्धकन्नए चेव' त्ति कुश्रुतिशलाकयाऽविद्धकर्ण:अव्युत्पन्नमतिरित्यर्थः। (वृ०प०६७८) ५२५. चेव संखाणं पडिलभामि । तस्यां प्रव्रज्यायां विषयभूतायां संख्यानं-बुद्धि प्रतिलेभ इति योगः। (वृ०प०६७८) ५२६. पडिलभित्ता इमे सत्त पउट्टपरिहारे परिहरामि, तं जहा५२७. (१) एणेज्जस्स (२) मल्लरामस्स (३) मंडियस्स (४) रोहस्स (५) भारद्दाइस्स । ५२८. (६) अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स (७) गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स। ५२६. इम बुद्धि लाभी मैं किया, आगल कहिस्यै जेह । सप्त पउट्ट परिहार प्रति, कहियै छै हिव तेह ।। ५२७. एणक फुन मल्लराम नों, मंडित रोह नों संच। भारदाइ नों पंचमो, निज-निज नामे पंच ।। ५२८. अर्जुन गोतम-पुत्र नों, गोशालक अवलोय । तेह मंखलिपुत्र नों, एह सप्तमों होय । १. आदि थकी सात संयूथ, छह देव भव अन सातमों देव भव ब्रह्मदेवलोक नै विषे । ते संयूथ न हुवै सूत्र के विषे संयूथपणे करी नथी वांछयो ते भणी । ३३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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