Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 249
________________ ८७. 'दुसमएण व' त्ति द्वौ समयौ यत्र स द्विसमयस्तेन विग्रहेणेति योग ः। (वृ०५० ६३२) ८८. एवं त्रिसमयेन वा विग्रहेण-वक्रेण । (वृ०प० ६३२) ८७. दोय समय विग्रह करि तेम, दोय समय संघाते एम। विग्रह शब्द सं संबंध थाय, विग्रह ते वक्र गति इहां पाय ।। ८८. इम तीन समय विग्रहेण, वक्र गति करि गमन करेण । पिण एक समय नीं विग्रह नांय, तिण सं विग्रह थी संबंध न थाय ।। सोरठा ८९. तिहां दोय समय विग्रहेण, भरत' पूर्व दिशि थी यदा। जे ऊपजै क्रमेण, नरके पश्चिम दिशि विषे ।। ६०. एक समय रै मांहि, अधो जाय तिण अवसरे । द्वितीय समय में ताहि, उत्पत्ति-स्थानक ऊपजै ।। ६१. तीन समय विग्रहेण, भरते अग्निकूण थी। नारक विषे क्रमेण, वायव्य-कूणे ऊपजै ।। ६२. एक समय रै मांय, अधो जाय सम श्रेणि कर। द्वितीय समय में जाय, तिरछो पश्चिम दिशि विषे ।। ६३. तृतीय समय में जान, तिरछो वायव्य-कूण में। उपजै उत्पत्ति स्थान, कह्यो न्याय ए वत्ति थी ।। ६४. इणे करि गति काल, आख्यो इम कहिवा थकी। जिसी शीघ्र गति न्हाल, तिसी शीघ्र जिनजी कही। ६५. *हे गोतम ! नारक नैं आखी, शीघ्र गति तसु एहवी दाखी। कह्यो तिसो शीघ्र गति नों काल, एवं जाव वैमानिक न्हाल ।। ६६. णवरं एकेंद्री उत्कृष्ट, च्यार समय विग्रह गति दृष्ट । तेहनं न्याय कयुं वृत्तिकार, कहियै छै हिव तसु अनुसार ।। ८९,९०. तत्र द्विसमयो विग्रह एवं-यदा भरतस्य पूर्वस्या दिशो नरके पश्चिमायामुत्पद्यते तदैकेन समयेनाधो याति द्वितीयेन तु तिर्यगुत्पत्तिस्थानमिति । (वृ०प० ६३२) ९१-९३. त्रिसमयविग्रहस्त्वेवं-यदा भरतस्य पूर्वदक्षिणाया दिशो नारकेऽपरोत्तरायां दिशि गत्वोत्पद्यते तदैकेन समयेनाधः समश्रेण्या याति द्वितीयेन च तिर्यक पश्चिमायां तृतीयेन तु तिर्यगेव वायव्यां दिशि उत्पत्तिस्थानमिति । (वृ०प०६३२) ९४. तदनेन गतिकाल उक्तः, एतदभिधानाच्च शीघ्रा गतिर्यादृशी तदुक्तमिति । (वृ०प० ६३२) ९५. नेरइयाणं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते । एवं जाव वेमाणियाणं । ९६. नवरं--एगिदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियव्वे । यतनी ६७. त्रस नाडि थकी जे बार, अधोलोके विदिशि थी विचार । दिशि प्रतै समय इक जाय, सम श्रेणि गमन थी ताय ।। १८. द्वितीय समय पेस लोक मांय, तीजा समय में ऊंचो जाय। त्रस नाडि थी नीकल जान, समय चतुर्थ उत्पत्ति स्थान ।। ६६. वृत्तिकार कही वलि वाय, बहलपणां नी ए अपेक्षाय । अन्यथा पंच समय पिछान, विग्रह एकेंद्रिय तणें जान ।। १००. त्रस नाडि थकी जे बार, अधोलोके विदिशि थी विचार । समश्रेणि करी दिश जाय, ए तो एक समय रै माय ।। १०१. दूजे समये पेस लोक मांय, तीजे समये ऊंचो जाय । चौथे समय तिरछो पूर्वादि, दिशि प्रते गमन संवादि ।। १०२. पंचमे जाय विदिश पिछान, व्यवस्थित उत्पत्ति स्थान । इम कही वृत्ति रै मांहि, धर्मसी पिण मान्यो नांहि ।। १०३. 'वृत्ति में बहु बातां विरुद्ध, सूत्र थी अणमिलती अशुद्ध । ते अशुद्ध किण रीत मानीजै, मिलती है ते अंगीकार कीजै ।। १. भरतक्षेत्र । *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी ९७. सनाड्या बहिस्तादधोलोके विदिशो दिशं यात्ये केन, जीवानामनुश्रेणिगमनात् । (वृ०प० ६३२) ९८. द्वितीयेन तु लोकमध्ये प्रविशति तृतीयेनोवं याति चतुर्थेन तु त्रसनाडीतो निर्गत्य दिग्व्यवस्थितमुत्पाद स्थानं प्राप्नोतीति । _ (वृ०प० ६३२) ९९. एतच्च बाहुल्यमंगीकृत्योच्यते, अन्यथा पञ्चसमयोऽपि विग्रहो भवेदेकेन्द्रियाणां। . (वृ०प० ६३२) १००. सनाडया बहिस्तादधोलोके विदिशो दिशं यात्येकेन (वृ०प० ६३२) १०१. द्वितीयेन लोकमध्ये तृतीयेनोवलोके चतुर्थन ततस्तिर्यक पूर्वादिदिशो निर्गच्छति ।(वृ०प० ६३२) १०२. ततः पञ्चमेन विदिग्व्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं यातीति, (वृ०प०६३२) श० १४, उ० १, ढा० २९१ २३१ Jain Education Intemational cation Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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