Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 250
________________ १०४. छद्यस्थ अणाहारि सोय सूत्र में कह्या समया दोय । तीन समय कह्या वृत्तिकार ए पिण पंच समय जिम धार ॥ १०५. तिसुं अणमिलती न मनाय, विरुद्ध बात बहु वृत्ति मांय । वर न्याय विचार वदीत, राखो सूत्र तणीज प्रतीत ।। ' [ ज.स.] १०६. * एकेंद्री विष दंडक उगणीस, नारक नीं पर कहिया जगीस। तीन समय नीं विग्रह तास, पूर्व नीं पर कहिवूं विमास ॥ दूहा गति आश्रयी, नरकादिक अनंतरोत्पन्न आदि हिव, द्वितीय दंडक १०७. अनंतरे नैरयिक आदि का अनंतरोपपन्नगादि पद १०८. * प्रभु ! नारक अनंतरोववन्ना, अथवा तिके परंपर-उत्पन्ना। अनंतर परंपर- उपपन्ना नांय ? श्री जिन भाखे तीनूं थाय ॥ आख्यात | अवदात ॥ १०६. किण अर्थे प्रभु ! इम कहिवाय, जाव अनंतर परंपर नांय ? जिन कहै गोतम ! सुण अवदात, न्याय त्रिहुं नारक नों ख्यात ॥ ११०. प्रथम समय न जे उपना, ते अनंत रोगवण्णा । उपनां समय थयो छे एक, ते नरक अनंतर उपनां पेख ॥ १११. प्रथम समय नां उपनां जाण, तेह नारक विण अन्य पिछाण । उपनां समय थया वे आदि, तेह परंपर उपनां वादि ॥ ११२. विग्रह गति प्रति वर्ते त्यांही ते अनंतर परंपर उपनां नांही । तिण अर्थे गोतम ! इम कहिये, यावत अणुववण्णगा लहिये || ११३. एवं अंतर-रहित विचार, जाव वैमानिक लग अवधार दंडक चवीसे सुविमास तीन-तीन विध कहिये तास ॥ 1 Jain Education International सोरठा । ११४. हिवे अनंतर आदि, आयु बंध तीनूं तणे प्रश्न तास संवादि, चित्त लगाई सांभलो ॥ ११५. *प्रभु! अनंतर उपनां जास, स्यूं नरकायु बंध तास । तिरि मन सुर आयु बंध होय ? जिन कहै इक पिण न बंधे सोय ।। *लय इण पुर कबल कोइय न लेसी २३२ भगवती जोड़ १०६. सेसं तं चैव । (स० १४१३) 'सेसं तं चेव' त्ति 'पुढविक्काइयाणं भंते ! कहं सीहा गई ?' इत्यादि सर्वं यथा नारकाणां तथा वाच्यमित्यर्थः । ( वृ०प० ६३२) १०७. अनन्तरं गतिमाश्रित्य नारकादिदण्डक उक्तः, अथानन्तरोत्पन्नत्वादि प्रतीत्यापरं तमेवाह( वृ०प० ६३२) १०८. नेरइया णं भंते! कि अणंतरोववन्नगा ? परंपरोववन्नगा ? अनंतर परंपर- अणुववन्नगा ? गोयमा ! नेरइया अनंत रोववन्नगा वि परंपरोववन्नगा वि, अनंतर परंपर- अणुववन्नगा वि । (श० १४०४) १०९. से केणट्ठणं भंते! एवं बुच्चद्द जाव (सं. पा.) बगंतर परंपर-अणुवन्नगा वि? गोयमा ! ११०. जे णं नेरइया पढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया अतरोववन्नगा । 'अनंत रोववन्नग' त्ति न विद्यते अन्तरं समयादिव्यवधानं उपपन्ने – उपपाने येषां ते अनन्तरोपपन्नकाः । ( वृ०५० ६३३) १११. जे गं नेरइया अपढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया परंपरोववन्नगा 'परंपरोववन्नग' त्ति परम्परा — द्वित्रादिसमयता उपपन्ने उपपाते येषां ते परम्परोपपन्नकाः । ( वृ०प० ६३३) ११२. जेणं नेरइया विग्गहग इसमावन्नगा ते णं नेरइया अगर-परंपर-अणुववन्नगा से तेषट्ठेष जान अनंतर परंपर- अणुववन्नगा वि । । एते च विग्रहगतिकाः, विग्रहगतौ हि द्विविधस्वादुत्पादस्याविद्यमानत्वादिति । ( वृ०१० ६३३) (२० १४१५) ११३. एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । ११४. अथानन्तरोपपन्नादीनाश्रित्यायुर्बन्धमभिधातुमाह (बु०प०६२३) ११५. अनंत रोववन्नगा णं भंते! नेरइया कि नेरइयाउयं पकति ? तिरिखखमस्त देवाउ पकति ? For Private & Personal Use Only -- गोमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति पकरेंति । जाव नो देवाउयं ( श० १४/६ ) www.jainelibrary.org

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